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अस्तु योग की तरह कृष्ण लेश्या, नील लेश्या व कपोत लेश्या में जीव वर्तता हुआ कदाचित् पांच क्रिया कदाचित् चार क्रिया व कदाचित् तीन क्रिया वाला होता है ।
नोट - तीन क्रिया कायिकी, अधिकारणिकी, और प्राद्व ेषिकी । चार क्रिया पारितानिकी सहित चार क्रिया लगती है । और जब अप्रशस्त लेश्या में जीव की हिंसा करता है तब प्राणातिपातिको सहित पांच क्रियाए ' लगती है ।
तेजोलेश्या पद्म लेश्या में जीव के मायाप्रत्ययिकी क्रिया अवश्य लगती है । शुक्ल लेशी जीव के माया प्रत्ययिकी क्रिया की भजना है। दसवें गुणस्थान तक मायाप्रत्ययिकी क्रिया लगती है । जबकि शुक्ल लेश्या ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवें गुणस्थान में भी होती हैं । अस्तु वीतरागी शुक्ल लेशी जीव के माया प्रत्ययिकी क्रिया नहीं लगती है । परन्तु ऐर्यापथिकी क्रिया लगती है । चौदहवें गुणस्थान में अलेशी होने से क्रिया नहीं लगती है । यद्यपि प्रथम सिद्ध के एजनादि क्रिया लगती है परन्तु अलेशी चौदह वे गुणस्थान में एजनादि क्रिया का भी अभाव है ।
पुद्गल की गति के नियम ११८—–अलोक में पुद्गल
और जीव की गति का निषेध-
देवे णं भंते! महिडिए जाव महेसक्खे लोगंते ठिच्चा पभू अलोगंसि हत्थं वा पायं वा बाहं वा ऊरुं वा आउंटावेत्तए वा पसारेत्तए वा ।
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११६ - से केण े णं भंते ! एवं बुच्चइ – देवे णं महिड्डिए जाव महेसक्खे लोगंते ठिच्चा नो पभू अलोगंसि हत्थं वा पायं वा बाहं वा ऊरुं वा आउंटावेत्तए वा पसारेत्तए वा ?
गोयमा ! जीवाणं आहारोवचिया पोग्गला, बोंदिचिया पोग्गला, कलेवरचिया पोग्गला । पोग्गलामेव पप्प जीवाण य अजीवाण य गतिपरियाए आहिज्जइ । देवे महिडिए जाव महेसक्खे लोगते ठिच्चा नो पभू अलोगंसि हत्थं वा पायं वा बाहं वा ऊरुं वा आउ टावेत्तए वा पसारेत्तए वा ।
- भग० श १६ । उ८ । सू ११८ - ११६
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