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गाथा १०
क्षपरणासार जिन प्रकृतियोंका बन्ध पाया जाता है ऐसी) स्वजातीय प्रकृतियो में संक्रमण करता है अर्थात् तद् प परिणमन कर जाता है।
विशेषार्थः-यह गुणसक्रमण अबन्धरूप अप्रशस्तप्रकृतियोंका ही होता है, अन्य में गुणसक्रमणकी प्रवृत्ति असभव है' । जैसे-असातावेदनीयप्रकृतिका द्रव्य सातावेदनीयरूप परिणमन करता है, इसीप्रकार अन्य प्रकृतियोका भी जानना ।
'प्रोब्बट्टणा जहण्णा पाउलियाऊशिया तिभागेण । एसा ढिदिसु जहण्णा तहाणुभागे सणंतेसु ॥१०॥४०१॥
अर्थः-जघन्य अपवर्तनाका प्रमाण विभागसे हीन आवलिप्रमाण है। यह जघन्यअपवर्तना स्थिति के विषयमे ग्रहण करना चाहिए, किन्तु अनुभागविषयक जघन्य अपवर्तना अनन्तस्पर्धकोंसे प्रतिबद्ध है।
विशेषार्थः-यद्यपि इस गाथामे स्थितिसम्बन्धी अपकर्षणकी जघन्यअतिस्थापनाका कथन किया गया है, तथापि देशामर्षक होनेसे स्थिति अपकर्षण-उत्कर्षणसम्बन्धी जघन्य व उत्कृष्ट अतिस्थापना व निक्षेपका कथन करना चाहिए । अनुभागके सम्बन्ध में यह कहा गया है कि जबतक अनन्तस्पर्धक अतिस्थापनारूपसे निक्षिप्त नही हो जाते तब तक अनुभागविषयकअपवर्तनाकी प्रवृत्ति नहीं होती है ।
उदयसे लेकर एकसमय अधिक आबलिप्रमाण स्थितिवाले निषेकके द्रव्यका अपकर्षण होनेपर समयकम आवलिका दो-त्रिभाग (3) तो अतिस्थापना है और शेष नीचेका समयाधिक आवलिका त्रिभाग निक्षेप है । स्थितिअपकर्षणसम्बन्धी यह जघन्यअतिस्थापना व निक्षेपका प्रमाण है। उससे अनन्तर उपरिमनिषेक (उदयावलिके बाहर द्वितीयनिषेक) का अपकर्षण होनेपर निक्षेप तो पूर्ववत् समयकम आवलिके विभागसे
१. जयधवल मूल पृ० १६५१ । २ यह गाथा क० पा० की गाथा १५२ के समान है तथा यह धवल पु० ६ पृष्ठ ३४६ तथा क०
पा० सुत्त पृष्ठ ७७४ पर भी है । यद्यपि क्षपणासार मे 'उव्वट्टण।' यह पाठ था, किन्तु वह अशुद्ध प्रतीत होता है अतः उसके स्थान पर 'ओवट्टणा' यह शुद्ध उक्त आधारसे रखा गया है । ज० ध०
मूल पृ० २००२ पर भी यह गाथा दी गई है। ३. जयधवल मूल पृ० २००२, क० पा० सु० पृष्ठ ७७४ ।