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१० ] क्षपणासार
[ गाथा ७-६ विशेषार्थ:-अधःप्रवृत्तकरण समाप्त होने के अन्तरसमय में अपूर्वकरणगुणस्थान में प्रवेश करता है, इसका काल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है। अपूर्वकरणके प्रथमसमय मे स्थितिकाण्डकघात व अनुभागकाण्डकघात प्रारम्भ होता है, क्योकि अपूर्वकरणकी विशुद्धिका स्थिति व अनुभागकाण्डकघातके साथ अविनाभावी सम्बन्ध है'।
'गुणसेडीदीहत्तं अपुठवचउक्कादु साहियं होदि ।
गलिदवसेसे उदयावलि बाहिरदो दु शिक्खेत्रो ॥७॥३६८॥
अर्थः-यहा गुणश्रेणिआयामका प्रमाण अपूर्वकरण-अनिवृत्तिकरण-सूक्ष्मसाम्पराय और क्षीणकषाय इन चारों गुणस्थानोके कालसे साधिक है, सो अधिकका प्रमाण क्षीणकषायगुणस्थानके कालके सख्यातवेभागमात्र है अत. उदयावलिसे बाहर गलितावशेषरूप जो यह गुणश्रेणिआयाम है उसमे अपकर्षण किये हुए द्रव्यका निक्षेपण होता है ।
विशेषार्थ.-परिणामविशेषके कारण असख्यातसमयप्रबद्धप्रमाण द्रव्यका अपकर्षण करके गुणश्रेणिआयाममे निक्षेपण करता है ।
पडिसमयं उक्कट्टदि असंखगुणिदक्कमेण संचदि य। इदि गुणलेडीकरणं पडिसमयमपुवपढमादो ॥८॥३६६॥
अर्थः-प्रथमसमयमे अपकर्षण किए हुए द्रव्यसे द्वितीयादि समयोमे असंख्यातगुणा क्रम लीए हुए प्रतिसमय द्रव्यका अपकर्षण करता है और सिंचित अर्थात् उदयावली, गुणश्रेणीआयाम और उपरितनस्थितिमे निक्षेपण करता है। इसप्रकार अपूर्वकरणगुणस्थानके प्रथमसमयसे लेकर प्रतिसमय गुणश्रेणि होती है।
पडिसमयमसंखगुणं दव्वं संकमदि अप्पसत्थाणं । बंधुझियपयडीणं बंधंतसजादिपयडीसु ॥६॥४००॥
अर्थः-अपूर्वकरणगुणस्थानके प्रथमसमयसे लेकर प्रतिसमय असख्यातगुणेक्रमसे युक्त (यहा जिनका बन्ध नही होता) अप्रशस्तप्रकृतियोका जो द्रव्य है वह (यहां
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१ जयधवल मूल पृष्ठ १९४८ । ३. जयधवल मूल पृष्ठ १९५१ ।
२ लब्धिसार गाथा ५३ के समान । ४. लब्धिसार गाथा ७४ के समान ।