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"प्रथम अध्याय"
श्रमण विचारधारा की पृष्ठभूमि : श्रमण का प्रचलित अर्थ साधु से लिया जाता है और साधु की साधुता अन्तरोन्मुखी वृत्ति की परिचायक है। यह श्रमण परम्परा भारतवर्ष की प्राचीनतम धार्मिक परम्परा है। इस काल में श्रमण परम्परा की नींव ऋषभदेव ने डाली थी, जिसका श्रीमद्भागवत आदि ग्रन्थों में भी उल्लेख है।' वृहदारण्यक, उपनिषद् एवं वाल्मीकि रामायण में भी श्रमण शब्द का प्रयोग हुआ है। महात्मा बुद्ध से पूर्व श्रमण परम्परा की सिद्धि विद्वत्समाज में की ही जा चुकी है। श्रमण परम्परा को पार्श्वनाथ से ही ऐक्यता स्थापन के विरोध में डॉ.हर्मन जेकोवी लिखते हैं - "यह प्रमाणित करने के लिए कोई आधार नहीं है कि पार्श्वनाथ जैन धर्म के संस्थापक थे। जैन परम्परा ऋषभ को प्रथम तीर्थंकर मानने में सर्वसम्मति से एकमत है। इस पुष्ट परम्परा में कुछ ऐतिहासिकता भी हो सकती है जो आद्य तीर्थंकर मानने को बाध्य कर देती है।
मानव समुदाय दो वर्गों में विभक्त है- 1 गृहस्थ वर्ग, 2 श्रमण या साधु वर्ग।
"श्रमण" में पालि-प्राकृत का मूल शब्द समण है, जिसका संस्कृत रुपान्तर श्रमण, मागधी में "शमण", अपभ्रंश में सवणु, कन्नड में श्रवण, यूनानी में मेगस्थानीज "सरमनाई", चीनी यात्री हेनसांग ने श्रमणेरस कहा है।
श्रमण शब्द "श्रम" धातू से बना है, जिसका अर्थ है उद्योग करना, परिश्रम करना-य अर्थ हमारे विचार बिन्दु हैं। परिश्रम होना चाहिए, परन्तु उस परिश्रम का द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव क्या हो? यह उससे भी ज्यादा विचारणीय है। "श्रम" का भाव के सन्दर्भ में दार्शनिक क्षेत्र में दो प्रकार की मीमांसाएं मिलती हैं- एक तो वे जो किसी न किसी रूप में एक परमसत्ता की कल्पना करके उसमें ही अपना श्रम स्थापित कर सन्तुष्ट होते हैं, और द्वितीय वे जो किसी भी प्रकार की परमसत्ता की अकल्पना में स्वसत्ता से ही श्रम स्थापित करती हैं और इस द्वितीय प्रकार में जैन दर्शन की गणना है। जैन दर्शन ने श्रमण को आत्म सत्ता में ही उद्यमी बतलाया है। चूंकि यह दर्शन अकर्तावादी दर्शन है।' और इसके अनुसार एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ भी नहीं कर सकता है-जैन दर्शन का