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वैदिक धर्माभिमत भूगोल परिचय विष्णु पुराण २२/७ के प्राधार पर कथित भावार्थ) इस पच्ची पर जम्बू प्लक्ष, शाल्मल, कुश, क्रौंच, शाक और पुष्कर ये सात द्वीप तथा लवणोद, इक्षुरस, सुरोद, सपिस्सलिल, दधितोय, क्षीरोद, और स्वादुसलिल ये सात समुद्र हैं। (२/२-४) जो चड़ी के प्राकार रूप से एक दूसरे को वैष्टित करते हैं। ये द्वीप पूर्व पूर्व द्वीप की अपेक्षा दूने विस्तार वाले हैं। (२/४,८८०)
इन सबके बीच में जम्बू द्वीप और उसके बीच में ८४००० योजन ऊंचा सुमेरू पर्वत है। जो १६००० योजन पृथ्वी में धंसा हुआ है। सुमेरू पर्वत से दक्षिण में हिमवान हेमकूट और निषेध तथा उत्तर में नील श्वेत और श्रृगों में ये छ: पर्वत हैं । जो इसको भारतवर्ष, विस्म् हरिजर्ष, हमाल, रम्यक्, हिरण्मय और उत्तर कुरू इन क्षेत्रों में विभक्त कर देते हैं।
नोट :--जम्बूद्वीप की चातुर्दीपक भूगोल के साथ तुलना (दे० प्रागे शीर्षक नं. ८) मेरू पर्वत के पूर्व व पश्चिम में इलायत की मर्यादाभूत माल्यवान व गन्धवान नाम के ये दो पर्वत हैं जो निषध वनील तक फैले हुये हैं। मेरू के चारों मोर पूर्वादि दिशाओं में मन्दर, गन्धदान, वपुल, और सुपार्श्व ये चार पर्वत हैं। इनके ऊपर क्रमशः कदम्ब, जम्बू, पीपल व वट ये चार वृक्ष हैं। जम्बू वृक्ष के नाम से ही यह द्वीप जम्बूद्वीप नाम से प्रसिद्ध है। वर्षों में भारतवर्ष कर्म भूमि है। और शेष भोग भूमियाँ हैं। क्योंकि भारत में हर युग त्रेता द्वीप और वियुग ये चार काल वर्तते हैं। और स्वर्ग मोक्ष के पुरुषार्थ की सिद्धी है। अन्य क्षेत्रों में सदा त्रेता युग रहता है। और वहाँ के निवासी पुण्यवान व प्राधि ब्याधि से रहित होते हैं।
भरत क्षेत्र में महेन्द्र प्रादि छ: कुल पर्वत हैं। जिनसे चन्द्रमा आदि अनेक नदियाँ निकलती हैं। नदियों के किनारों पर कूरू पांचाल आदि और पीण्ड कलिंग आदि लोग रहते हैं। इसी प्रकार प्लक्ष द्वीप में भी पर्वत व उनसे विभाजित क्षेत्र है। वहाँ प्लक्ष नाम का वृक्ष है और सदा प्रेता काल रहता है ? शाल्मल आदि शेष सर्व द्वीपों की रचना प्लक्ष द्वीपवत् हैं। पुष्कर द्वीप के बीचोंबीच वलयाकर मानुषोत्तर पर्वत हैं। जिससे उसके दो खण्ड हो गये हैं। ग्राभ्यंतर खण्ड का नाम धातकी है। यहाँ भोग भूमि है इस द्वीप में पर्वत व नदियां नहीं हैं। इस द्वीप को स्वादूदक समुद्र वेष्टित करता है। इसे ग्रागे प्राणियों का निवास नहीं है।
इस भुखंड के नीचे दस-दस हजार योजन के सात पाताल हैं। अतल, वितल, नितल, गभस्तिमत्, महातल, सुतल, प्रौर पाताल । पातालों के नीचे विष्णु भगवान् हजारों फनों से युक्त शेष नाग के रूप में स्थित होते हये इस भूखंड को अपने सिर पर धारण करते हैं।
अन्त में १८ शून्य, दो, मौर, एक, दो, एक, पांच, नो, चार, सात, सात, साल, एक, तीन, शून्य, दो, आठ, शन्य, तीन शून्य, तीन, छः, दो, पांच, चार, तीन, एक और चार, ये कम से पल्य के अंक है।
सौ सौ वर्षों में एक एक रोम खण्ड से निकालने पर जितने समय में वह गड्ढा खाली हो, उतने काल को व्यवहारपल्योपम कहते हैं । यह व्यवहारसल्य उद्धारपल्य का निमित्त है।
व्यवहारपल्य समाप्त हुआ व्यवहारपल्य को रोमराशि में से प्रत्येक रोम खण्ड को, असंस्पात करोड़ों वर्षों के जितने समय हो उतने खण्ड करके, उनसे दूसरे पल्य को भरकर पुनः एक-एक समय में एक-एक रोम खण्ड को निकाले । इस प्रकार जितने समय वह दूसरा पल्प खाली हो जाये, उतने काल को उदारपल्लोपम समझना चाहिये।
उद्धारपल्य समाप्त हुआ इस उद्धारपल्य से दीप और समुद्रों का प्रमाण जाताजाता है। उदारपल्य को रोम राशि में से प्रत्येक रोम खण्ड के असंख्यात वर्षों के समय प्रमाण खण्ड करके तीसरे गड्ढे के भरने पर और पहले के समान एकएक समय में एक एक रोम खण्ड को निकालने पर जितने समय में वह गड़ा रिक्त हो जाये उतने काल को अद्धापल्योपम कहते हैं ? इस अड्डापल्य से नारकी, तिर्यच, मनुष्य और देवों की आयु तथा क्रमों की स्थिति का प्रमाण जानना चाहिये।