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में १६, १६ क्षेत्र हैं। जो ३२ विदेह कहलाते हैं। इनका विभाजन वहां स्थित पर्वत व नदियों के कारण से ही हुआ। प्रत्येक क्षेत्र में भरत क्षेत्रवत् छह खण्डों की रचना है। इन क्षेत्रों में कभी धर्म विच्छेद नहीं होता है । दूसरे तथा तीसरे प्राधे द्वीप में पूर्व ब पश्चिम विस्तार के मध्य एक सुमेरू पर्वत है। प्रत्येक सुमेरू पर्वत सम्बन्धी छ: पर्वत व सात क्षेत्र हैं। जिनकी रचना उपरोक्तवत् है। लवणोद के कारण तल भाग में अनेकों पाताल हैं। जिनमें वायु की हानि वृद्धि के कारण सागर के जल में भी हानि होती है।
पृथ्वी तमोज गर गाशाला में कम से सितारे, सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र बुध, शुक्र, बहस्पति मंगल, शनि इन तीनों ज्योतिष ग्रहों के संचार से क्षेत्र अवस्थित हैं। जिनका उल्लंघन न करते हये वे सदा सुमेरू पर्वत की प्रदक्षिणा देते हुये घूमा करते हैं। इसी के कारण दिन रात वर्षा ऋतु आदि की उत्पत्ति होती है। जनाम्नाय में चन्द्रमा की अपेक्षा सूर्य छोटा माना गया है।
का नाम आत्मांगुल है ।। १०६ ।।
उत्सेवांगूल से देव, मनुष्य, तिर्यंच एवं नारकीयों के शरीर की ऊंचाई का प्रमाण, और चारों प्रकार के देवों के निवास स्थान व नगरादि का प्रमाण जाना जाता है ।। ११०॥
द्वीप, समुद्र, कुलाचल, वेदी, नदी, कुण्ट, या सरोबर जगती और भरतादिक क्षेत्र इन सबका प्रमाण प्रमाणौगुल से ही हमा करता है ।। १११ ।।
झारी, कलश, दर्पण, वेणु, भेरी, युग, शय्या, शकट (गाड़ी), हस, मूसल, शक्ति, तोमर, सिंहासन, बाण, नालि, अक्ष, चामर, दंदुभि, पीठ, छत्र, मनुष्यों के निवास स्थान व नगर और उद्यानादिकों की संख्या आत्मांगुल से समभता पाहिये ॥ ११२-११३॥
छह अंगुलों का पाद, दो गादों का बिलस्ति, दो वितस्तियों का हाथ, दो हाथों का रिबकू दो रिसकुओं का दण्ड, दण्ड के बराबर अर्थात् चार हाच प्रमाण ही धनुष, मूसल, तथा नाली, और दो हजार दण्ड या धनुषका एक कोपा होता है।
।। ११४-११५ ।। चार कोश का एक योजन होता है। उतने ही अर्थात् एक वोजन विस्तार वाले गोल गहुँ वा गणित शास्त्र में निपुण पुरुषों को धनफल ले आना चाहिये ।। ११६ ॥
समान भील क्षेत्र के व्यास के वर्ग को दस से गुणा करके को रणनपल प्राप्त हो इसका हर गल निकालने पर परिधि वा प्रमाण निकलता है। तथा विस्तार अर्थात् व्यास के चौथे भाग से परिधि को गुणा करने पर उसका त्रिफल निकलता है
तथा उन्नीस योजनों को चौबीस से विभक्त करने पर तीन प्रकार के पल्पों में से प्रत्येक घन क्षेत्रफल होता है। उदाहरण १-योजन व्यास वाले गोल क्षय का घनफल१४१४१०=१०, १०=१६ परिधि +1=1. क्षेत्रफल, १x१-१६ का घनफल,
उत्तम भोग भूमि में एक दिन से लेकर सात दिन तक के उत्पन्न हुए मैन्हें के करोड़ों रोमों के अविभागी खण्ड करके उग खण्डित रोमानों से उस एक योजन विस्तार वाले प्रथम पल्य को (गड्ढे को) पृथ्वी के बराबर अत्यन्त सघन भरना चाहिये ।
ऊपर जो प्रमाण बनफल आया है उसके दण्ड करके प्रमाणाँगुल कर लेना चाहिये । पुनः प्रमाणांगुलों के उत्सेधांगुल करना चाहिये । पुनः जौ, जू, लीख, कर्मभूमि के बालान, जघन्य भोग भूमि के बालाय, मध्य भोग भूमि के बालासा, उत्तम भोग भुमि के दालान उनकी अपेक्षा प्रत्येक को आठ के धन से गुणा करने पर व्यवहारपल्य के रोमों की संख्या निकल आती है।
१४४४४४४. २०००-२०००४२०००x४४४४४ X २४ ४२४४२४४५००४ ५००४ १०० Xxx XXX.XXX-XX.x.x.xxcxcxcxcxcxcxc= ४१३४५२६३०३०८२०३१७७७४६ ११२१६२००००००००००००००००००