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इनसे आगे मनुष्यों का निवास नहीं है । शेष द्वोपों में तिथंच व भूतप्रेत आदि व्यन्तर देव निवास करते हैं। जम्बू द्वीप में सुमेरू पर्वत के दक्षिण में हिमवान महाहिमवान व निषध तथा उत्तर में नील रुक्मि व शिखरों के ये ६ कुलपर्वत हैं जो इस द्वीप को भरत, हैमवत, हार, विदेह, रम्यक, हैरण्य पर्वत व ऐरावत नाम, वाले सात क्षेत्रों में विभक्त करते हैं। प्रत्येक पर्वत पर एकएक महाहृद हैं जिनमें से दो-दो नदियाँ निकल कर प्रत्येक क्षेत्र में पूर्व व पश्चिम दिशा मुख से बहती हुई लवण सागर में मिल जाती हैं उस क्षेत्र से वे नदियां अन्य सदस्यों परिवार नदियों को अपने में समा लेती हैं। भरत व ऐरावत क्षेत्रों के बीचों बीच एक-एक विजया पर्वत हैं। इस क्षेत्रों को दो-दो नदियाँ व इस पर्वत के कारण ये क्षेत्र छ: छः खण्डों में विभाजित हो जाते हैं । जिनमें मध्यवर्ती एक खण्ड में आर्य जन रहते हैं, और शेष पांच में म्लेच्छ । इन दोनों क्षेत्रों में ही धर्म कर्म व सुख दुःख प्रादि की हानि वद्धि होती हैं, शेष क्षेत्र सदा अबस्थित हैं विदेह क्षेत्र में सुमेरू पर्वत स्पर्शी सोमनस विद्यतप्रभ तथा गन्धामादन व माल्यवान नाम के दो गजदन्ताकार पर्वत हैं। जिनके मध्य देवकुरू उत्तरकुरू नामक दो उत्कृष्ट भोग भूमियाँ हैं यहां के मनुष्य व नियंच बिना कछ कार्य किये प्रति सूख पूर्वक जीवन व्यतीत करते हैं उनकी आयु भी असंख्यात वर्षो की होती है-इन दोनों क्षेत्रों में जम्ब व शाल्मली नाम के दो वृक्ष हैं। जम्बु वृक्ष के कारण ही इसका नाम जम्बू द्वीप हैं। इसके पूर्व व पश्चिम भाग में से प्रत्येक
के अविभागों अर्थात् जिसके और विभाग न हो सके, ऐम अंश को परमाण, कहते हैं ।। ६५ ।।
जो अत्यन्त तीक्षण शस्त्र से भी छेदा या भेदा नहीं जा सकता, तथा जल और अग्नि आदि के द्वारा नाश को भी प्राप्त नहीं होता, वह परमाण है ॥ ६६ ॥
जिसमें पांच रसों में गे एक रस, पांच वर्षों में से एक वर्ण, दो गन्धों में से एक गन्ध, और स्निग्ध-रक्ष में से एक तथा शीन उष्ण में स एकस प्रकार व गुण हो. और जो स्ता नाम न हो कर भी शब्द का कारण हो एचं स्कंध के अन्तर्गत हो. मे दया वो पपिउन जन परमाणु कहते हैं ।। ६७ ।।
जो द्रव्ध अन्त, आदि एवं मध्य से विहीन हो, प्रदेशों से रहित अर्थात् एक प्रदेशी हो, इन्द्रिय द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता हो और त्रिभाग रहित हो, उसे जिन भगवान परमाणु कहते हैं ।। ६८ ॥
कोकि स्कन्धों के समान परमाण भी पूरतें हैं, और गलते हैं, इसलिए पूरणनालन क्रियाओं के रहने से वे भी पूदगल के अन्तर्गत हैं. ऐसा दृष्टिवाद मंग में निर्दिष्ट है ।। १६ ॥
परमाणु स्कन्ध की तरह सब काल में वर्ण, रस, गन्ध, और स्पर्श, इन गुणों में पूरण-गलन की क्रिया करते हैं, इसीलिए वे पदगल ही हैं ।। १०० ॥
जो नपविशेष की अपेक्षा कथंचित मूर्त व कथंचित् अमूर्त हैं, चार धातुरूप स्कन्ध का कारण है, और परिणमनस्वभाषी हैं, उसे परमाणु जानना चाहिये ।। १०१ ।।
नाना प्रकार के अनन्तानन्त परमाणु-द्रव्यों से उवसन्नासन्न नाम से प्रसिद्ध एक स्कन्ध उत्पन्न होता है ।। १०२ ॥
उबसन्नासन्नों को भी आय से गुणित करने पर मन्नासन्न नाम का स्कन्ध होता है, अर्थात् आठ उवजन्नासन्नों का एक सन्नारान्न नाम का स्कन्ध होता है? आ3 मे मूणित सन्मासन्नों अर्थात् आठ सन्नासन्नों से एमा त्रुटिरेण , और इतने ही (आठ) त्रुटि रेणुओं से त्रसरेण होता है। इम प्रबार पूर्व-पूर्व स्कन्धों से आठ-आठ गुरणे क्रमशः रथरेणु, उत्तम भोगभूमिका बालान, मध्यम भोग भूमिका बालाय, जपन्य भोगभूमिका बालाप, कर्म भूमिका बालाग्र, लोन, ज, जौ और अगुल, ये उत्तरोत्तर स्कन्ध कहे गये हैं।। १०३-१०६ ।।।
अंगल तीन प्रकार का है-उत्सेधागुन, प्रमाणानुल और आत्मांगुल? इनमें से जो अंगुल उपयुक्त परिभाषा से सिद्ध किया गया है, वह सूच्चंगुल है ।। १०७ ॥
पाँच सौ उत्सागुल प्रमाण अवसर्पिणी काल के प्रथम भरन चक्रवर्तीका एक अंगुल होता है, और इसी का नाम प्रमाणांगुल है ॥१०८।। जिस-जिस काल में भरत और ऐरावत क्षेत्र में जो-जो मनुष्प हुबा करते हैं, उस-उस काल में उन्हीं मनुष्यों के अंगुल