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एक व्यक्ति को व्यापार में सूझ नहीं पड़ती, इसलिए व्यापार बिगड़ गया। वह है दर्शनावरण। व्यापार की जानकारी नहीं है कि व्यापार कैसे करें, तो वह है ज्ञानावरण। _ 'मैं शुद्धात्मा हूँ' ऐसा समझ में आया, सूझ पड़ी वह इसलिए कि दर्शनावरण टूट गया। अब, 'मैं क्या हूँ' उसकी पूरी जानकारी नहीं है, वह ज्ञानावरणीय कर्म है। दादाश्री जब ज्ञान देते हैं तब दर्शनावरण पूर्ण रूप से टूट जाता है। ज्ञानावरण धीरे-धीरे टूटता है! रोंग बिलीफ, वह दर्शनावरण है और रोंग ज्ञान, वह ज्ञानावरण है।
[२.४ ] मोहनीय कर्म मोहनीय अर्थात् जो खुद नहीं है वहाँ पोतापणुं मानना और जो रिश्तेदारी है उसे खुद की मानना! ये पति और बच्चे खुद के नहीं है फिर भी खुद के समझना, वह मोहनीय कर्म है।
नगीनदास सेठ कभी दारू ज़्यादा पी लें तो फिर वे क्या कहते हैं? 'मैं हिंदुस्तान का प्रेसिडेन्ट हूँ!' क्या हम नहीं समझ जाएँगे कि यह दारू का असर बोल रहा है?! उसी तरह 'मैं चंदू, इसका बेटा, इसका पति' ऐसा बोलना, वह सब मोह के असर से बोल रहा है!
'मैं चंदूभाई हूँ' ऐसा मानना, वह मूल मोह है। वहाँ से फिर मोह की परंपरा सर्जित हो गई।
मोह, महामोह और व्यामोह का अर्थ क्या है? व्यामोह अर्थात् विशेष मोह। अर्थात् मूर्छित हो गया। बेभान हो गया जबकि मोह में भान रहता है। महामोह में भी भान रहता है। मालूम है कि मोह करने जैसा नहीं है, फिर भी चश्मे के कारण आकर्षण हो जाता है। दिखाई देना बंद हो जाता है, अनुभव होना बंद हो जाता है, उससे मोह उत्पन्न हो जाता है। दूसरे शब्दों में, दर्शनावरण और ज्ञानावरण की वजह से।
सिर पर बेहद कर्जा हो, फिर भी बाज़ार में पटाखे देखता है और मूर्छित होकर ले लेता है, वह मोह है।