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आप्तवाणी-७
दादाश्री : ‘होगा' ऐसा बोलना बहुत ही जोखिमवाला है। या तो 'नहीं' बोलो या फिर 'है' ऐसा बोलो। 'होगा' ऐसा गोलमाल बोलना भयंकर जोखिम है। गोलमाल के कारण ही तो जगत् ऐसा है। 'जैसा है वैसा' बोलो और पता तो लगाओ, और कह दो कि 'भाई मेरे ध्यान में अभी तक ऐसा कोई आया नहीं है। हमें कहने का राइट कितना है? कि आज तक मेरी जिंदगी में बहुत घूमा, लेकिन मुझे अभी तक कोई ऐसा मिला नहीं है। वर्ना सुगंधी सहित लक्ष्मी कहीं भी होती ही नहीं। अभी इस काल में होगी तो भी बहुत कम होगी, शायद ही कहीं पर होगी।
प्रश्नकर्ता : सुगंधी सहित लक्ष्मी, 'वह' लक्ष्मी कैसी होती
है?
दादाश्री : वह लक्ष्मी हमें बिल्कुल भी उपाधि (बाहर से आनेवाले दुःख) नहीं करवाती। घर में सौ रुपये पड़े हों न, फिर भी हमें बिल्कुल भी उपाधि नहीं करवाती। कोई कहे कि कल से शक्कर पर कंट्रोल आनेवाला है, फिर भी मन में उपाधि नहीं होगी। उपाधि नहीं, हाय-हाय नहीं। ऐसा व्यवहार कितना सुगंधीवाला, वाणी कितनी सुगंधीवाली और उसे पैसे कमाने का विचार तक नहीं आता। ऐसे पुण्यानुबंधी पुण्य होते हैं। पुण्यानुबंधी पुण्यवाली लक्ष्मी हो, उसे पैसे पैदा करने का विचार ही नहीं आता। यह तो सब पापानुबंधी पाप की लक्ष्मी है। इसे तो लक्ष्मी कहा ही नहीं जा सकता! निरे पाप के ही विचार आते हैं। ‘कैसे जमा करूँ, कैसे जमा करूँ?' वही पाप है। तब कहते हैं कि पहले ज़माने में सेठ के वहाँ पर लक्ष्मी थी, वह? वह लक्ष्मी जमा हो जाती थी, जमा करनी नहीं पड़ती थी। जबकि इन लोगों को तो जमा करनी पड़ती है। वह लक्ष्मी तो सहज भाव से आती रहती थी। खुद ऐसा कहता था कि, 'हे प्रभु! यह राजलक्ष्मी तो मुझे स्वप्न में भी न आए।' फिर भी वह आती ही रहती थी। क्या कहते थे कि आत्मलक्ष्मी आए, लेकिन यह राजलक्ष्मी तो हमें स्वप्न