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आप्तवाणी-७
और यदि चोरी करने से रकम बढ़ जाती तो कभी किसी को नुकसान होता ही नहीं।
प्रश्नकर्ता : अभी लोभ के कारण यह अधर्म घुस गया है न?
दादाश्री : हाँ, इस लोभ के कारण ही बहुत नुकसान होता है, वह लोभ ही उसे फँसाता है। ऐसा करो न, तो इतने दस हज़ार बच जाएँगे।' इसीलिए तो लोभ को दुश्मन कहा है न! लोभ उल्टा सिखाकर मनुष्य को अंधा कर देता है, 'ये दस हज़ार बच रहे हैं इसलिए लिख दो न उल्टा!'
प्रश्नकर्ता : और लोभ को बढ़ानेवाली अपनी सरकार ही है न?
दादाश्री : सरकार यानी अंत में तो हम ही हैं, वह अपना ही स्वरूप है। यानी वह अपने ही सिर पर आता है, तो फिर किसे गालियाँ देंगे? सरकार तो अपना ही प्रतीक है। तो किसे कहेंगे हम? अतः भूल खुद की ही है। सभी प्रकार से यदि खुद की ही भूल देखेगा तो भूल खत्म होगी, नहीं तो भूल खत्म नहीं होगी।
प्रश्नकर्ता : हम लोगों को आज ऐसा लगता है कि हमारे बच्चे कितने पैसे खर्च करते हैं, लेकिन हमारे ज़माने में एक रुपये मन बाजरा था, और अभी?
दादाश्री : बात ठीक है! ऐसा है न, मैं आपको सही बात कह दूँ, यह हकीकत जानने जैसी है कि यदि इतनी महँगाई हो जाए तो पब्लिक खाने-पीने का कुछ भी नहीं पा सकेगी। इसलिए फिर मैंने ज्ञान से देखा कि, 'यह क्या है फिर? ये लोग किस तरह तेल लाकर खाते हैं? किस तरह दस रुपये भाव की चीनी लाकर खाते हैं? इतनी महँगी चीजें ये किस तरह खाते होंगे? वह सब हिसाब निकाला। अंत में ज्ञान से देखा