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आप्तवाणी-७
प्रकृति, कषाय से ही गूंथी हुई ये क्रोध-मान-माया-लोभ जो हैं न, उसमें लोभ की प्रकृति ऐसी है कि उसके मालिक को भी पता नहीं चलता कि मुझ में कितना लोभ है। यानी लोभ उतना अधिक कपटवाला है। क्रोध का स्वभाव भोला है। मालिक को तो क्या लेकिन पराये व्यक्ति भी कह जाते हैं कि इतना अधिक क्रोध क्यों कर रहे हो? लेकिन लोभ का तो खुद को भी पता ही नहीं चलता। लोभ से इंसान बहुत उल्टा चलता है न! और लोभ की प्रकृति चली जाए, ऐसी नहीं है। अनंत जन्मों तक लोभ की प्रकृति नहीं जाती। क्योंकि लोभ की राग प्रकृति है, वह द्वेष प्रकृति नहीं है। और राग प्रकृति ठंडकवाली होती है इसलिए वह प्रकृति छूटने नहीं देती, वह तो बहुत भारी प्रकृति है। लोभ और कपट, वे दोनों राग प्रकृति में जाते हैं और क्रोध व मान, वे द्वेष प्रकृति में जाते हैं। द्वेष प्रकृति तो अपनी पकड़ में आ जाती है, लेकिन राग प्रकृति तो पकड़ में नहीं आती। मालिक की पकड़ में भी नहीं आती न! क्योंकि उसमें तो इतनी अधिक मिठास बरतती है! लोगों को तो मान और अपमान की ही पड़ी हुई है न!
प्रश्नकर्ता : दादा वह तो पहले से ही चलता आया होगा न?
दादाश्री : अनादिकाल से यही का यही सारा मान और अपमान! मनुष्य योनि में आया तभी से मान और अपमान, नहीं तो दूसरी वंशावलियों में, दूसरी योनियों में ऐसा कुछ भी नहीं है। यहाँ मनुष्यों में और वहाँ देवलोगों में भी मान-अपमान का बहुत ऊधम है।
प्रश्नकर्ता : यहाँ आते ही यह सब कहाँ से सीख गया?
दादाश्री : यह तो सीखकर ही आया हुआ है। यह देखो न, यह बच्चा कितने साल का हुआ?