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आप्तवाणी-७
चाहिए तो लोगों को तकलीफें दो, जो चाहिए वही दूसरों को दो। अपने यहाँ जो आता है, उस पर से हमें समझ लेना है कि हमने सामनेवाले को क्या दिया था। अतः यदि सुख चाहिए तो सुख देने का प्रयत्न करो, शुरूआत करो।
यह जगत् तो व्यवहार स्वरूप है, जो ऐसा कहता है कि 'देकर लो'। यदि तकलीफें आती है तो हमें समझ जाना चाहिए कि हमने लोगों को तकलीफें ही दी हैं, दूसरा धंधा ही नहीं किया!
और यदि सुख आता है तो समझना कि हमने दूसरों को सुख दिया है।
प्रश्नकर्ता : जो पहले तकलीफें दी जा चुकी है, वे तकलीफें अभी आ रही है। अब वे तकलीफें हों, तो सुख कैसे दे सकते
हैं?
दादाश्री : वह तो सुख देने का भाव करो और फिर किसी को भी तकलीफ़ मत देना। दो गालियाँ दे जाएँ, तो आप वापस दूसरी पाँच गालियाँ मत देना और उन दो गालियों को जमा कर लेना। जो दो गालियाँ दी थी वे वापस आई हैं, इसलिए उन दो गालियों को जमा कर लेना। यह तो कोई दो गालियाँ दे तो जमा करने के बजाय दूसरी पाँच देता है। अरे, उसके साथ व्यापार जारी क्यों रखता है? यानी यह सब लेन-देन का हिसाब है। फिर उसे जगत् चाहे जो नाम दे कि ऋणानुबंध है, लेकिन सब लेन-देन का हिसाब है। यानी अगर पसंद हो तो उधार दो, लेकिन वह उधार दिया हुआ वापस आएगा। यह तो जमा-उधार का खेल है! जो जमा किया था वही वापस आ रहा है, इसमें भगवान हाथ डालते ही नहीं। तकलीफ़ पसंद नहीं है? तो फिर तकलीफें देना बंद कर दो।
भले ही कोई सौ गालियाँ दे। अब गालियाँ कोई पत्थर नहीं है। ज्ञान मिलने के बाद ये गालियाँ क्या पत्थर हैं? पत्थर लग जाए तब मुझे लगेगा कि इसे चोट लगी है, खून निकला, तो