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आप्तवाणी-७
तो अगर 'व्यवस्थित' में होगा तो नुकसान होगा और यदि फायदा होना होगा तो वह भी 'व्यवस्थित' में होगा तो आएगा। यानी यह फायदा-और नुकसान अपने हाथ में नहीं हैं। हम मना करेंगे फिर भी वह फायदा होता ही रहेगा। हम कहें कि नहीं, अब तो मैं इस फायदे से अघा गया हूँ, तो वह भी नहीं चलेगा। यानी कि हमारे मना करने पर भी फायदे का दबाव रहेगा, फायदे के लिए भी दबाव और नुकसान के लिए भी दबाव! इसलिए फायदा-नुकसान का हिसाब ही मत निकालना।
कोई सेठ मुझ पर दबाव डालता रहे कि, 'नहीं, आपको तो प्लेन से कलकत्ता आना ही पड़ेगा।' मैं 'नहीं-नहीं' कहूँ तो भी दबाव डालते ही रहते हैं, यानी कोई भी चीज़ छोड़ेगी नहीं न! इसलिए उसका हिसाब ही मत निकालना, बढ़ौतरी और कमी का हिसाब ही मत निकालना। जब जिस दिन नुकसान हो न, उस दिन आप पाँच सौ रुपये 'अनामत' (रिज़र्व निधि) के नाम पर जमा कर देना। ताकि अपने पास पूँजी, 'अनामत' पूँजी रहे। क्योंकि ये बहीखाते क्या हमेशा के हैं? दो-चार या आठ वर्षों के बाद फाड़ नहीं देते? यदि सही होते तो कोई फाड़ता? ये तो सब मन को मनाने के साधन हैं। तो जिस दिन डेढ़ सौ का नुकसान हो जाए न, तब आप पाँच सौ रुपये अनामत खाते में जमा कर देना। यानी साढ़े तीन सौ की पूँजी आपके पास रही, मतलब डेढ़ सौ के नुकसान के बदले साढ़े तीन सौ की पूँजी आपको दिखेगी। ऐसा है यह जगत् सारा। गप्प गुणा गप्प एक सौ चवालीस है, बारह गुणा बारह एक सौ चवालीस नहीं है यह। बारह गुणा बारह एक सौ चवालीस होता तो वह एक्ज़ेक्ट सिद्धांत कहलाता। संसार यानी गप्प गुणा गप एक सौ चौवालीस और मोक्ष यानी बारह गुणा बारह एक सौ चौवालीस।
आपकी लाइन तो अच्छी है, इसमें बहुत फायदा-नुकसान होने की गुंजाइश ही नहीं है न! यदि नुकसान होगा तो पड़ोसी को