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व्यापार की अड़चनें (१९)
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चोरियाँ होने दीं, हिसाब चुकाए हमारे यहाँ काम पर ऐसा होता था न, कि जिसे चौकीदार रखते वे ही चोरियाँ करवाता था। फिर एक के बदले दो लोग रखे। एक रात का और दूसरा दिन का, ऐसे दो लोग रखे। वो भी चोरियाँ करवाता था। हर दूसरे-तीसरे दिन चोरियाँ होती ही रहती थीं। मैं समझ गया कि, 'यह सब ठीक है, यह सारा हिसाब चुकाना पड़ेगा। इस गाँव में चोरियों का हिसाब चुकाने आए हैं, तो जब सारा हिसाब चुक जाएगा तो निबेड़ा आ जाएगा।' चोर चोरियाँ करे और हमें सुबह जान लेना है, जान लेने के बाद फिर शांत कर देता और जो स्पेयरपार्ट चोरी हो जाते थे, वे वापस दूसरे मँगवा लेता था और काम आगे बढ़ने देता। इतना ही काम करता रहता था। फिर सात दिन बाद पुलिसवाले को खबर देता। नुकसान में और भी नुकसान! ऐसे क्यों करता था? नहीं, वह नाटक भी करना पड़ता है। नाटक नहीं करें तो फिर गलत माना जाएगा। फिर पुलिसवाले आते थे। वे पुलिसवाले पूछते थे कि, 'क्या-क्या गया?' तब मैं कहता कि, 'यह-यह गया है, वह वाला सामान तो सारा चला गया। आप एक बार सब को धमकाओ।' वह फिर उन सब को धमका आते कि, 'अरे, ऐसा कैसे? अरे, ऐसा कैसे? मैं आया हूँ।' हम जान जाते थे कि कल से वापस चोरियां शुरू हो जाएँगी, हम वह ज्ञान जानते ही थे। पुलिसवाला धमकाता और वे चोरी करते। हम यह सब करवाते थे
और ऐसे सब चलता रहता! लेकिन 'व्यवस्थित' से बाहर कुछ भी होनेवाला नहीं है। बारह महीनों तक चोरियाँ हुई, लेकिन हमारे यहाँ किसी पर कोई असर नहीं। रोज़ चोरियाँ होती रहती थीं। हम सिर्फ जान लेते थे कि भाई आज इतनी चोरी हुई।
चोर चोरी करते हैं, वे तो बेचारे अच्छे हैं। बाकी ये जो साहूकार कहलाते हैं न, जब वे चोरियाँ करते हैं तो वे अधिक गुनहगार हैं। इसके बजाय, वह तो चोर ही है। वह कहता भी है न, कि 'मेरा काम ही चोरी करना है।'