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आप्तवाणी-७
दंड का भान हो, तभी गुनाह रुकेंगे प्रश्नकर्ता : लेकिन ऐसा नहीं करेगा तो पेट कहाँ से भरेगा?
दादाश्री : पहले हमें भी ऐसा भय लगता था। इस कलियुग में हमने भी जन्म लिया न! तो १९५१ तक तो ऐसा भय रहता था, लेकिन फिर वह भय छोड़ दिया, क्योंकि सिमेन्ट निकाल लेना, वह मनुष्य में से ब्लड चूसने के समान है और लोहा निकाल लेना, वह इन सब के स्केलेटन (हड्डियाँ) निकाल लेने जैसा है। स्केलेटन निकाल लिया, खून निकाल लिया, फिर मकान में बचा क्या?
__ हम लोगों को चोरी करना शोभा नहीं देता। हम साहूकार बनकर चोरी करे उसके बजाय तो चोर अच्छे। जो चोरियाँ करते हैं, उनके बजाय तो जो मिलावट करते हैं वे और अधिक गुनहगार हैं। यह तो भान ही नहीं कि 'मैं जो यह गुनाह कर रहा हूँ, उसका क्या फल आएगा?,' नासमझी में बिना समझे ही गुनाह करते
हिसाब का पता चला तो चिंता टल गई!
हमारे यहाँ बिज़नेस में एक बार ऐसा हुआ कि एक साहब ने अचानक से दस हज़ार रुपये का नुकसान कर दिया। साहब ने हमारा एक काम अचानक ही निरस्त कर दिया। उस समय में तो दस हज़ार की बहुत क़ीमत थी और अभी तो दस हज़ार की कोई क़ीमत ही नहीं है न! मुझे तो उस दिन बहुत भीतर तक असर पहुँचा था। चिंता हो जाए, वहाँ तक पहुँच गया था। तब तुरंत ही उसके सामने मुझे अंदर से जवाब मिला कि, 'इस व्यापार में मेरी खुद की पार्टनरशिप कितनी?' उन दिनों हम दो ही पार्टनर थे, लेकिन फिर मैंने हिसाब निकाला कि दो लोग तो कागज़ पर पार्टनर हैं, लेकिन वास्तव में कितने हैं? वास्तव में तो बेटे, बेटियाँ, उनकी पत्नी और मेरा परिवार। ये सब पार्टनर