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आप्तवाणी-७
हुआ,' तो उस दिन वह चैन से भोजन करता। और यदि दूसरा कोई शुभचिंतक आए और पूछे कि, 'बहुत नुकसान हो गया है?' तब मैं कहता कि, 'नहीं, पचासेक हज़ार का नुकसान हुआ है।' 'ताकि उसे भी घर जाकर शांति रहे।' शुभचिंतक और बाकी के, दोनों प्रकार के लोग आएँगे। दोनों को खुश करके भेजना चाहिए। यदि मैं कहूँ कि, 'तीन लाख का नुकसान हुआ है' तो वह बहुत खुश हो जाएगा। उसे वापस कहूँ कि, 'चाय पीकर जाओ न?' तब कहता है कि, 'मुझे ज़रा काम है।' क्योंकि उसे आनंद हो गया न, तब चाय वगैरह सबकुछ आ गया। उसे उसकी खुराक मिल गई, क्योंकि द्वेष है न! यह स्पर्धा ऐसी चीज़ है कि स्पर्धा के मारे इंसान कुछ भी कर दे। स्पर्धा यानी कि, 'मुझसे आगे बढ़ गया है? अब इसे पीछे धकेलना ही चाहिए।' तो फिर पीछे धकेलने के प्रयत्न करता रहता है। ऐसे को मैं साफ-साफ ही कह देता हूँ कि, 'अधिक नुकसान हुआ है।' देखो, उसे चैन से खाने का भाया न! और अपने यहाँ क्या नुकसान होनेवाला है? अपना तो नुकसान हुआ ही है, उसमें हमें हर्ज नहीं। लेकिन लोगों को तो क्या है कि जवाब तो देना पड़ेगा न! उन्हें यदि कह दें कि, 'कोई नुकसान नहीं हुआ।' तो वह
और कुछ ढूँढकर लाएगा वापस कि 'ये तो मना कर रहे हैं।' अतः उसे कहना पड़ता है, हाँ, तीन गुना नुकसान हुआ है। जिसने तुझसे कहा हो उसे पूछ लेना, उसे भी पता नहीं होगा। लेकिन मुझे बहुत नुकसान हुआ है।' फिर थोड़े दिन बाद वापस आए और कहे कि, 'अब काम-धंधा कैसा है आपका? बंद करना पड़ेगा?' तब मैंने कहा कि, 'यह तो सात लाख की जायदाद थी, उसमें से तीन लाख कम हो गए।' यानी उसे नई ही प्रकार का कहते थे। अरे, तू क्या मुझे पहुँच पाएगा! मैं 'ज्ञानीपुरुष' हूँ, तुझे दुःख नहीं दूंगा, लेकिन इस तरह कुरेदना मत। यह तो बिना बात के पीछे घूमते रहते हैं! तो ऐसे तो मैंने बहुत लोग देखे हैं। दुनिया है न, सभी तरह के लोग होते हैं!