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आप्तवाणी-७
लक्ष्मी जी में, और लक्ष्मी जी का विषय पूरा हुआ कि वापस घर पर मेमसाहब याद आती रहती हैं और मेमसाहब का विषय पूरा हुआ कि वापस लक्ष्मी जी का विषय याद आता है! इसीलिए दूसरा कुछ ख्याल में ही नहीं रहता है न! फिर दूसरे हिसाब निकालने रह ही जाएँगे न?
हमने सुनार को देखा था, तब मुझे ऐसा होता था कि यह डाँटता क्यों नहीं कि आप सोना क्यों बिगाड़कर लाए हो? उसकी दृष्टि कितनी सुंदर है! बिल्कुल भी नहीं डाँटता। इसका अच्छा है वैसा भी नहीं कहता है और उसका खराब है वैसा भी नहीं कहता है। कुछ भी कहता नहीं, लेकिन ऐसा कहता है, 'बैठो, चायपानी पीओगे न?' अरे, मिलावटी सोना है, फिर भी चाय पिला रहा है? ऐसा ही इसमें भी क्या बिगड़ गया है? अंदर 'शुद्ध' सोना ही है न?
यह कैसी रिसर्च, कि भगवान मिल गए
मैंने पूरी लाइफ रिसर्च में निकाली है, रिसर्च ही किया है सब। छोटी उम्र में ही कहता था कि भगवान सिर पर नहीं चाहिए। उसके बजाय ये बीवी-बच्चे, माँ-बाप सिर पर हों तो हर्ज नहीं है खिलाएँगे-पिलाएँगे। लेकिन यदि भगवान सिर पर होंगे तो वे तो बिना काम के झिड़केंगे। फिर पढ़ने में आया कि भगवान तो भीतरवाले को कहते हैं, तब वह बात मुझे पसंद आई। कई लोग तो भगवान को भीतरवाला ही कहते हैं न!
अवकाश, धर्म के लिए ही बिताया हमने कितने ही समय से व्यापार किया ही नहीं। व्यापार में तो अगर हमारे पार्टनर पूछे कि, 'यह कैसे करेंगे?' तब मैं कहता कि, 'ऐसा करें।' तब वे कहते, 'यह तो मेरी छह महीने की उलझन चली गई अब आप छह महीने तक नहीं आएँगे तो चलेगा। आप एक दिन कुछ बताते हैं न तो मेरे छह महीने की