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आप्तवाणी-७
दादाश्री : अरे, यहाँ से साथ में लेकर ही जाता है और साथ ही वहाँ उपयोग करता है।
प्रश्नकर्ता : लोभ प्रकृति, मान प्रकृति से क्या भावकर्म बँधते
हैं?
दादाश्री : इनसे ही ये सब भावकर्म उत्पन्न होते हैं। ये जो क्रोध-मान-माया-लोभ हैं, उन्हीं से अंधापन आता है और उससे फिर उल्टे-सीधे भाव करता है। वह अंधापन तोड़ने के लिए, क्रोधमान-माया-लोभ जाएँ तभी अंधापन टूटेगा और तभी भाव शुद्ध होंगे। अहंकार से अंधा हो गया है, लोभ से अंधा हो गया है, क्रोध से अंधा हो गया है और कपट से अंधा हो गया है, चारों प्रकार से अंधा, अंधा और अंधा ही बनकर घूमता है।
क्रोधी के बजाय क्रोध नहीं करनेवाले से लोग अधिक घबराते हैं। क्या कारण होगा उसका? क्रोध बंद होने पर प्रताप उत्पन्न होता है। कुदरत का नियम है ऐसा! नहीं तो उसे रक्षण करनेवाला ही नहीं मिलेगा न! क्रोध तो रक्षण था, अज्ञानता में क्रोध से रक्षण होता था।
सम्यक उपाय, जानो एक बार प्रश्नकर्ता : क्रोध नहीं करना हो फिर भी हो जाता है, तो उसका निवारण क्या है?
दादाश्री : क्रोध करना किसी को अच्छा लगता ही नहीं न? क्रोध यानी खुद अपने ही घर में दियासलाई लगाना। खुद के घर में घास भरकर उसमें दियासलाई लगा देना, वह क्रोध है। यानी पहले खुद जलता है और फिर पड़ोसी को जलाता है।
प्रश्नकर्ता : यह जानने के बावजूद भी क्रोध हो जाता है। उसका क्या निवारण है?
दादाश्री : कौन जानता है? जानने के बाद क्रोध होगा ही