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आप्तवाणी-७
अंततः उपकार खुद पर ही करना है कभी किसी पर भी उपकार किया हो, किसी का फायदा किया हो, किसी के लिए जीए हों तो उतना खुद को लाभ होता है, लेकिन वह भौतिक लाभ होता है, उसका भौतिक फल मिलेगा।
प्रश्नकर्ता : किसी पर उपकार करने के बजाय खुद पर उपकार करे तो?
दादाश्री : बस, खुद पर उपकार करने के लिए ही सबकुछ करना है। यदि खुद पर उपकार करे तो उसका कल्याण हो जाए। लेकिन उसके लिए खुद अपने आप को जानना पड़ेगा, तब तक लोगों पर उपकार करते रहना, लेकिन उसका भौतिक फल मिलता रहेगा। खुद अपने आप को जानने के लिए, 'हम कौन हैं?' वह जानना पड़ेगा। अभी तक तो आप 'मैं चंदूभाई हूँ,' उतना ही जानते हो न? या और भी कुछ जानते हो? 'मैं ही चंदूभाई हूँ,' ऐसा कहोगे। 'इसका पति हूँ, इसका मामा हूँ, इसका चाचा हूँ,' ऐसी सब श्रृंखलाएँ! ऐसा ही है न? वही ज्ञान आपके पास है न? उससे आगे नहीं गए हैं न?
यह स्वार्थ है या परार्थ? लोग जिसे स्वार्थी कहते हैं, उसे वीतराग परार्थी कहते हैं। परार्थी यानी पराये के लिए ही ये गड़बड़ करता रहता है और भयंकर कर्म बाँधता है। या तो परमार्थी अच्छा और नहीं तो स्वार्थी अच्छा। सच्चा स्वार्थ अच्छा है। यह स्वार्थ तो परार्थ है। पत्नी और बच्चों के लिए उल्टी-सीधी गड़बड़ें करता है, और फिर खुद तो कर्म बाँधकर चला जाएगा और सारा खाएँगे-पीएँगे उसके बच्चे और खुद बेचारा पाप बाँधकर जाएगा। इसलिए उस पर तो करुणा रखने जैसा है।
प्रश्नकर्ता : स्वार्थ और नि:स्वार्थ, इन दोनों में किस तरह फर्क करें?