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आप्तवाणी-७
तो सौ में से होता है और ऐसी तो लाखों में से एक या दो ही ध्वजा फहरती हैं।
प्रश्नकर्ता : यह कलियुग है इसलिए ऐसा होगा, लेकिन सत्युग में तो होगा न?
दादाश्री : सत्युग में तो बहुत अच्छे लोग थे। सत्युग की तो बात ही क्या करें! सुगंधीवाले लोग! जबकि अभी तो किसी की थोड़ी सी भी सुगंधी आती है?
क़ीमत दर्शन की, न कि चप्पलों की!
प्रश्नकर्ता : पहले हर रोज़ मंदिर जाता था, लेकिन इस साल दो बार नए-नए चप्पल खो गए, इसलिए अब मैं कभीकभी ही मंदिर जाता हूँ।
दादाश्री : अब आप नए चप्पल पहनकर मंदिर में जाना और दर्शन करने जाओ, उस समय चप्पल बाहर निकालो तब चप्पल से इतना कहना कि, 'हे चप्पल, तुझे जाना हो तो जा और रहना हो तो रहना। मैं तो भगवान के दर्शन करने जा रहा हूँ।' फिर वह जो दर्शन करोगे न, उस दर्शन का लाभ तो आपको, लाखों चप्पल की क़ीमत से भी अधिक ऊँचा फल मिलेगा! हमारे कहे अनुसार यदि करोगे तो! चप्पल से कहकर जाना, लेकिन कोई सुन ले, ऐसे मत बोलना।
...और चप्पल चोरी हो जाएँ तब! हमें भी नए जूतों का ऐसा एक अनुभव हो चुका है। बड़ौदा में घड़ियाली पोल है। वहाँ एक बड़ा उपाश्रय है। वहाँ एक दिन दर्शन करने गया था। उस दिन लंबा कोट पहना था
और ज्ञान तो कुछ हुआ नहीं था, तो उन महाराज के पास बैठकर सुनता था और ज्ञान की सभी बातें महाराज से पूछता था। अभी तो फिर भी थोड़े बहुत पुराने जूते पहन लेता हूँ। लेकिन उन