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आप्तवाणी-७
दादाश्री : हाँ, होते ही हैं। नियम हमेशा ऐसा ही है कि इस शरीर में किसी भी जगह पर कचरा इकट्ठा हो जाए तो उस कचरे में अपने आप ही, उस कचरे को खाने के लिए जीव उत्पन्न हो ही जाते हैं। इन फेफड़ों में अगर कचरा भर जाए तो फिर अंदर उस कचरे को खाने के लिए जीव उत्पन्न हो ही जाते हैं। जबकि अपने लोग कहते हैं, 'अरे टी.बी. के जीवाणु लग गए!' अरे नहीं, जीवाणु बाहर से नहीं आते, वे तो अंदर ही पैदा होते हैं, अंदर ही जीव पड़ जाते हैं।
प्रश्नकर्ता : ये चोर नाम के जो जीवाणु हैं, वे ऐसा समझकर उनके पास जाते हैं कि लायक का पैसा है या नालायक का पैसा है? या फिर जहाँ गलत कमाई है, वहीं पर वे जाते हैं और जहाँ पसीने की कमाई हो वहाँ वे नहीं जाते?
दादाश्री : ऐसा है, कि जितना सही धन है, पसीने का धन है, वह कभी भी जाता ही नहीं और यह बिना पसीनेवाला गलत धन है न, वह अपने आप ही किसी न किसी रास्ते चला जाएगा, ऐसे जाएगा, वैसे जाएगा, अरे! जेब कटवाकर भी चला जाएगा, लेकिन किसी न किसी रास्ते जाएगा, जाएगा और जाएगा ही। जो सही धन है, वह हमें सुख देकर ही जाएगा और जो गलत धन है, वह दु:ख देकर जाएगा। वह फिर डॉक्टर से पेट कटवाता है, अंदर चीरे लगवाता है और हज़ारों रुपये खर्च करवाता है! यानी गलत धन दुःख देता है, सही धन सुख देता है! हमारे यहाँ गलत धन नहीं आएगा। अभी तो ऐसा है कि गलत तो सब
ओर घस ही जाता है, लेकिन हमारे यहाँ पर यों बहुत गलत धन नहीं घुसेगा। अतः किसी प्रकार का दुःख उत्पन्न नहीं होगा। कुछ ऐसे लोग होंगे कि जिनके यहाँ गलत धन नहीं आता है, उन्हें दुःख नहीं भोगना पड़ता।
प्रश्नकर्ता : तो फिर यह सरकार टैक्स काटती है, वह सब एक प्रकार का लाइसेन्स खूनी जैसा ही कहा जाएगा न?