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जेब कटी? वहाँ समाधान! (१७)
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दादाश्री : नहीं, नहीं। ये टैक्स तो पद्धतिपूर्वक है। टैक्स और गलत धन का कोई लेना-देना नहीं है।
प्रश्नकर्ता : लेकिन कुछ टैक्स ऐसे होते हैं कि हमें ऐसा लगता है कि ये सब गैरज़रूरी है।
दादाश्री : नहीं, गैरज़रूरी टैक्स होते ही नहीं। सभी टैक्स ज़रूरी हैं। क्योंकि हम सभी उस टैक्स से सुविधाएँ भोगते हैं। सरकार को यह जो सेना रखनी पड़ती है, इस हिन्दुस्तान की रक्षा करने के लिए जो सेना रखी है, उस सेना के लिए सभी खर्चे चाहिए या नहीं चाहिए? यानी जो आय और व्यय है और जिसमें अपने देश का रक्षण है न, उसके लिए जो कुछ भी कदम हैं, उसके लिए हमें टैक्स तो देना ही पड़ेगा न! और हिन्दुस्तान की सुरक्षा में अपनी ही सुरक्षा है न! अब अगर उस टैक्स में चोरी करें तो वह गुनाह है, ऐसा करना ही नहीं चाहिए।
प्रश्नकर्ता : वे बिचौलिए जेबें भरते हैं, उनका क्या?
दादाश्री : वे लोग जो जेबें भरते हैं, वे तो इन जेबकतरों के बड़े भाई हैं। हमें लालच रहता है कि मेरे दो हज़ार बच रहे हैं न! और उसे पाँच सौ रुपये देने हैं न! यानी आपने चोरी की और उसने भी चोरी की। ये तो सब चोर-चोर इकट्ठे हो गए! इसलिए उन्हें 'चोर के भाई महाचोर' कहते हैं। वह यदि चोर कहलाते हैं तो यह महाचोर है लेकिन सबकुछ एक सा ही है। वर्ना, यह सब गलत है, बहुत ही गलत है। अतः यदि हक़ का धन, हक़ के विषय हों, तो इस दुनिया में कोई दुःखी रहेगा ही नहीं।
प्रश्नकर्ता : लेकिन अभी कहीं पर हक़ की रोटी होगी ऐसा पाँच-दस प्रतिशत भी लगता है?
दादाश्री : नहीं होता, एकाध प्रतिशत होता होगा? प्रतिशत