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बॉस-नौकर का व्यवहार (१६)
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आदत है, डाँटने की आदत है, तब तक आपको भी कोई डाँटनेवाला मिल आएगा। मैं किसी को भी नहीं डाँटता, इसलिए मुझे कोई नहीं डाँटता। अपने से नीचेवाले डाँटने के लिए नहीं हैं, जिस प्रकार से उन्हें संतोष हो उस प्रकार हमें अपना काम निकाल लेना चाहिए। इस बैल को रोज़ दस रुपये का खिलाते हैं और तीस रुपये का काम निकलवा लेते हैं। उसी तरह, अपने यहाँ जो मज़दूर काम कर रहे हों, वे बेचारे तो यदि उन्हें फायदा होगा तभी अपने यहाँ रहेंगे न? लेकिन हम उसे डाँटते रहें तो वह कहाँ जाएगा? जीवमात्र में भगवान बिराजमान हैं, लेकिन मनुष्य में तो भगवान व्यक्त रूप में हैं, ईश्वर स्वरूपी हो गए हैं, भले ही परमेश्वर नहीं बने हैं। ईश्वर क्यों कहलाते हैं? क्योंकि वह यदि मन में पक्का कर ले न कि 'इन्हें एक दिन गोली से मार डालना है,' तो वह एक दिन गोली चलाकर मार सकता है न? इस तरह से ये ईश्वर स्वरूप है, अतः उनका नाम ही नहीं लेना चाहिए। इसलिए हम कहते हैं न, कि इस काल में एडजस्ट एवरीव्हेर हो जाओ। कहीं भी डिस्एडजस्ट होने जैसा नहीं है। यहाँ से तो भाग छूटने जैसा है। 'यह' विज्ञान तो एक-दो जन्मों में मोक्ष में ले जानेवाला है, इसलिए यहाँ काम निकाल लेना है।
उसमें भूल किसकी? प्रश्नकर्ता : मेरा स्वभाव ऐसा है कि गलत चीज़ सहन नहीं होती, इसलिए गुस्सा आता रहता है।
दादाश्री : गलत है, ऐसा न्याय कौन करता है?
प्रश्नकर्ता : अपनी बुद्धि जितना काम करती है, उस अनुसार करते हैं।
दादाश्री : हाँ, उतना ही न्याय होगा।
प्रश्नकर्ता : लेकिन ऐसा है न, कि एक व्यक्ति को हम रोज़ के पच्चीस रुपये तनख़्वाह देते हों, और वह व्यक्ति पाँच रुपये