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दुःख मिटाने के साधन (१५)
२३५ प्रश्नकर्ता : तो फिर मानवसेवा तो एक व्यवहारिक चीज़ है, ऐसा ही समझें न? वह तो व्यवहार धर्म हुआ न?
दादाश्री : वह व्यवहार धर्म भी नहीं है, वह तो समाजधर्म है। जिस समाज के लिए अनुकूल हो, उसी के लोगों को अनुकूल पड़ेगा और वही सेवा अगर किसी और समाज को देने जाएँ तो वह प्रतिकूल पड़ेगा। यानी कि व्यवहार धर्म कब कहलाता है कि जो सभी को एक समान लगे, तब! अभी तक आपने जो किया, वह समाजसेवा कहलाती है। हर एक की समाजसेवा अलग-अलग प्रकार की होती है। हर एक समाज अलग प्रकार का है, उसी तरह सेवा भी अलग प्रकार की होती है।
प्रश्नकर्ता : लेकिन व्यवहार में ऐसा होता ही है न कि दया भाव रहता है, सेवा रहती है, किसी के प्रति लागणी (भावुकतावाला प्रेम, लगाव) रहती है कि 'कुछ कर लूँ'। किसी को नौकरी दिलवानी, बीमार को होस्पिटल में जगह दिलवानी, यानी कि ये सभी क्रियाएँ, वह एक प्रकार का व्यवहार धर्म ही हुआ न? ।
दादाश्री : वे सब तो सामान्य फ़र्ज़ हैं। समाजसेवा तो, जिसने बीड़ा उठाया है, यानी घर में बहुत ध्यान नहीं देता, और बाहर लोगों की सेवा में पड़ा हुआ है, वह समाजसेवा कहलाती है। जबकि बाकी के सब तो खुद के आंतरिक भाव कहलाते हैं। ऐसे भाव तो खुद को आते ही रहते हैं। किसी पर दया आए, किसी पर लागणी हो वगैरह, ऐसा सब तो खुद की प्रकृति में लेकर ही आया होता है, लेकिन आखिर में यह सारा प्रकृति धर्म ही है। समाजसेवा भी प्रकृति धर्म है। उसे प्रकृति स्वभाव कहते हैं कि 'इसका स्वभाव ऐसा है, इसका स्वभाव ऐसा है।' किसी का स्वभाव दुःख देने का होता है, किसी का स्वभाव सुख देने का होता है। इन दोनों के स्वभाव, वे प्रकृतिक स्वभाव कहलाते हैं, आत्मस्वभाव नहीं। प्रकृति में जैसा माल भरा है, वैसा ही उसका माल निकलता है।