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आप्तवाणी-७
प्रश्नकर्ता : यों मुझे खुद को कोई दु:ख नहीं है। मैं दुःखी हूँ ही नहीं।
दादाश्री : वह ठीक है। लेकिन यह तो मनुष्य का स्वभाव है कि दूसरों का दुःख देखकर खुद को दुःख होता है। स्वाभाविक रूप से दुःख होता ही है।
ऐसा है न, ये जो दुःखी दिखते हैं वह आपकी दृष्टि है। उस दुःखी इंसान से पूछे न, तो वह क्या कहेगा? 'ये सभी लोग दुःखी हैं।' अरे, क्या तू दुःखी नहीं है? तब कहेगा कि, 'मुझे कोई दुःख है ही नहीं।' यानी आपकी ये तो सारी दृष्टि ही रोंग है, जब आप उनसे पूछोगे तब पता चलेगा। अर्थात् इन सब लोगों की दृष्टि सही नहीं होती।
प्रश्नकर्ता : यह बात मनुष्यों के लिए ठीक होगी, आप कहते हो वैसा, लेकिन यदि प्राणी दुःखी हो रहे हों तो उनका क्या?
दादाश्री : मेरा कहना यह है कि प्राणियों को जो दुःख है, वह भूख का दुःख है, उन्हें और कोई दुःख नहीं है।
प्रश्नकर्ता : भूख का दु:ख असह्य कहलाता है न?
दादाश्री : हाँ, असह्य। लेकिन क्या हो सकता है फिर? उसका उपाय क्या है? पूरे जगत् का हम कैसे चला सकते हैं? और ये जो जानवर दु:खी होते हैं, वे और कोई नहीं हैं, लेकिन अपने ही जो चाचा, मामा, वगैरह जो सब थे, वे ही यहाँ पर आए हैं। अपने खुद के ही नज़दीकी सगे-संबंधी हैं।
प्रश्नकर्ता : दुनिया में अभी बहुत लोग ऐसे हैं कि जिन्हें ऐसा लगता है कि वे गरीब लोगों के लिए, बीमार, दुःखी लोगों के लिए खुद किसी भी प्रकार से मददगार हो सकें, ऐसा करना अच्छा है या नहीं?