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आप्तवाणी-७
उसे समझ में नहीं आता न? पहले से उसकी दृष्टि बैठ चुकी है, वह छूटती नहीं न!
कुछ तो इन्कमटैक्स पचाकर बैठे होते हैं, पच्चीस-पच्चीस करोड़ रुपये दबाकर बैठे होते हैं। लेकिन वे जानते नहीं हैं कि सभी रुपये चले जाएँगे। बाद में जब इन्कमटैक्सवाले नोटिस देंगे तब रुपये कहाँ से निकालेगा? यह तो निरा फँसाव है! इन ऊँचे चढ़नेवाले को तो बहुत जोखिमदारी है, लेकिन वह जानता ही नहीं न! बल्कि, परे दिन किस तरह से इन्कमटैक्स बचाऊँ, वही ध्यान! इसीलिए हम कहते हैं न, कि यह तो तिर्यंच की रिटर्न टिकट लेकर आया
रुपयों का नियम कैसा है कि कुछ दिन टिकते हैं और फिर चले जाते हैं। चले ही जाते हैं। वह रुपया घूमता ज़रूर है, फिर वह नफा ले आता है, नुकसान ले आता है या ब्याज ले आता है, लेकिन घूमता ज़रूर है, वह बैठा नहीं रहता। वह स्वभाव से ही चंचल है। यानी यह ऊपर चढ़ गया हो तो फिर ऊपर उसे फँसाव लगता है। उतरते समय उतर नहीं पाता, चढ़ते समय तो जोश में चढ़ जाता है। चढ़ते समय तो जोश में ऐसे पकड़पकड़कर चढ़ जाता है, लेकिन उतरते समय तो, जैसे बिल्ली मुँह मटकी में डाले, ज़ोर से डाले और फिर निकालते समय कैसा होता है? वैसा होता है।
सहज प्रयत्न से, संधान मिलेगा ही इसलिए हम कहते हैं कि अपने पुण्य का खाओ। पुण्य किसे कहते हैं? घर आकर सुबह साढ़े पाँच बजे उठाए कि, 'भाई, हमें बंगला बनवाना है और उसका कॉन्ट्रैक्ट आपको देना है।' ऐसा 'व्यवस्थित' है! यदि मालिक भागदौड़ नहीं करे फिर भी 'व्यवस्थित' मालिक को उठाने आए और मालिक यदि बंगला बनवाने के लिए भागदौड़ करे, तो 'व्यवस्थित' क्या कहेगा कि, 'होगा अब!'