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आप्तवाणी-७
करते हैं। जब उस लिमिट को पार कर देते हैं, तब उनके व्यवहार पर टीका-टिप्पणी होती है !
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सगे चाचा का लड़का घर आया हो और यदि वह ज़रा गरीब स्थिति का हो, तो जब घर में आए तो 'आओ' भी नहीं कहते और फिर एक डॉक्टर आए और दूर से ही देखे, फिर भी खड़ा होकर, ‘आईए, पधारिए, पधारिए साहब' करता है। क्यों भाई ? उस डॉक्टर के जाने के बाद उसे पूछें कि, 'क्यों आप डॉक्टर के प्रति ऐसा भाव दिखा रहे थे और जब यह चाचा का लड़का आया तब अच्छा भाव नहीं दिखा रहे थे?' तब कहेगा, ‘ये डॉक्टर तो कभी काम आएँगे, यह भाई किस काम का?' अरे, यह तो तेरे मन में भावना हुई कि 'मेरा शरीर बिगड़ जाएगा', यह तो रोग के बीज डाले !
... गर्ज़ है, इसलिए फँसते हैं
खुद अपने आप पर श्रद्धा नहीं रहती, कि 'मैं कुछ हूँ । ' अब, 'मैं कलेक्टर हूँ' वह श्रद्धा तो होती है, लेकिन वह कलेक्टर पद ही चला जाएगा । तू कुछ ऐसा है कि जो हमेशा का पद है, तो फिर उसे खोज निकाल न! कलेक्टरी तो चली जाएगी। लोग कल उठा दें न । निकाल दें तो ? फिर आरोप लगाकर जेल में भी डाल सकते हैं।
अतः किसी का नाम मत देना और किसी की सुनना भी मत । नाम तो किसी का भी नहीं देना चाहिए, लेकिन सुनना भी मत। क्योंकि वे भी जीव हैं न ! लेकिन अपने में लालच होता है न, कि 'यह आदमी मेरे किसी काम का है।' ये तो गर्ज़ से गधे को भी बाप कहते हैं । गधे को भी बाप कह रहे हो? 'हाँ, गर्ज़ है इसलिए कहना ही पड़ेगा न !' अरे, तो आप जाओ, गधे के वहीं जाओ। ऐसी कैसी गर्ज़ है कि गधे को बाप कहते हैं? बाप को बाप कहे, वह बात अलग है। कभी चाचा से भी