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पसंद, प्राकृत गुणों की (१४)
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फिर भी कल भिखारी बनकर खड़ा रहेगा, इसका कोई ठिकाना नहीं है। इनके पास क्या लालच करना? अंदरवाले का नाम ले, नहीं तो ऊपरवाले का नाम ले। ऊपरवाले से कहेगा, तो भी भीतर पहुँचेगा!
स्वार्थवाले प्रेम ने, बढ़ाया संसार
घाट विनाना निर्मल प्रेमनी
(नि:स्वार्थ निर्मल प्रेम की) पंदरे क्षेत्रोमां फेली जो सुवास... - नवनीत
(पंद्रह क्षेत्रों में फैली जो सुगंध) नि:स्वार्थ प्रेम सीख आओ सभी, वह सीखने लायक है। यों प्रेम तो हर कोई रखता है, लेकिन निःस्वार्थ प्रेम की तो बात ही अलग है न! ये सब रखते हैं न, वे सब प्रेम नहीं रखते, लेकिन अब सिर्फ अंदर से स्वार्थ निकाल लें तो क्या होगा? पंद्रह क्षेत्रों में खुश्बू फैलेगी, कविराज ऐसा कहते हैं! इन कविराज ने कुछ भी बुद्धिपूर्वक नहीं लिखा है, वह तो सहजभाव से निकला है। जो सत्य था वह बाहर आ गया है, पूरा सत्य ही बाहर आ गया है।
अंदर से सभी स्वार्थ निकाल लें तो फिर क्या बचा? निर्मल प्रेम बचा! 'यह मेरे काम का है' ऐसा विचार आना ही क्यों चाहिए? कुछ लोगों को तो कुछ भी नहीं हुआ हो, फिर भी यदि कोई डॉक्टर आए, तब खड़े होकर कहेगा, 'आईए डॉक्टर, आईए!' मन में कहेगा कि, 'कभी काम आएँगे।' अरे, तू बीमार पडेगा कब और यह मिलेगा कब? ये काम का कब तक है? अरे, रसोईया रास्ते में मिल जाए तो वह उसे 'अरे, इधर आ, इधर आ।' करता है! अरे भाई, क्यों इन्हें आप इतना बुला रहे हो? तब कहेगा, 'कभी काम पड़े, तब रसोईये को बुला सकेंगे न!' कैसे मतलबी! जैसे यहाँ से जाना ही नहीं हो न, ऐसी