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भोगवटा, लक्ष्मी का (१३)
हमारे भीतर भगवान संपूर्ण व्यक्त हो चुके हैं, जबकि आप में व्यक्त नहीं हुए हैं, बस उतना ही है। लेकिन किस प्रकार व्यक्त होंगे? जब तक भगवान के सम्मुख नहीं हुए, तब तक किस तरह व्यक्त होंगे? आप भगवान के सम्मुख हुए थे कभी भी?
प्रश्नकर्ता : यों तो हम लक्ष्मी के सम्मुख हुए हैं ।
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दादाश्री : वह तो पूरा जगत् ही लक्ष्मी के सम्मुख हुआ है न! और आप सेठ जी लक्ष्मी के सम्मुख हुए हो या विमुख? प्रश्नकर्ता : मैं तो उसके प्रति उदासीन हूँ !
दादाश्री : ऐसा? तो आप सम्मुख भी नहीं और विमुख भी नहीं हो? ऐसा? उदासीन, वह तो बहुत बड़ी चीज़ है । लक्ष्मी आए तब भी ठीक है और नहीं आए तब भी ठीक है ।
यह तो कैसा भोगवटा ?
लोगों को लक्ष्मी को संभालना भी नहीं आता और भोगना भी नहीं आता। भोगते समय कहेंगे कि, 'इतना महँगा ? इतना महँगा लिया जाता होगा?' अरे, चुपचाप भोग न! लेकिन भोगते समय भी दु:ख, कमाते हुए भी दुःख ! लोग परेशान करें, ऐसे में कमाना पड़ता है। कुछ तो उधार के पैसे वापस नहीं देते, अतः कमाते हुए भी दुःख और संभालते हुए भी दुःख ! संभालते रहें, तब भी बैंक में रह नहीं पाते न ! बैंक के खाते का मतलब ही क्रेडिट और डेबिट, पूरण और गलन ! लक्ष्मी जाती है तब भी बहुत दु:ख देती है। 'ये इतने महँगे आम कहीं लिए जाते होंगे? यह सब्ज़ी इतनी महँगी क्यों ली?' अरे, सभी में तू महँगा, महँगा कहता रहता है । महँगा किसे कहता है तू ? तो सस्ता किसे कहता है ? यह तो एक प्रकार की बुरी आदत पड़ी हुई है। उसकी दृष्टि बैठ गई है तो फिर क्या हो? हम क्या कहते हैं कि जो आया, जो महँगे भाव का आया, वह सब करेक्ट ही है, 'व्यवस्थित' है। लेकिन