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आप्तवाणी-७
पहले पत्नी को रोज़, 'चल सिनेमा देखने, चल सिनेमा देखने।' फिर सिनेमा में जाता है। फिर पत्नी थोड़ी परीक्षा करती है और कहती है कि, 'इस बच्चे को मैं नहीं उठा सकती।' तब वह कहेगा, ‘ला, मैं उठा दूं।' फिर एक-दो दोस्त मज़ाक उड़ानेवाले मिल जाएँगे, वे कहेंगे कि, 'अरे, तेरे साथ यह पत्नी है, वह तो यों ही घूम रही है और बच्चे को तू उठाकर घूम रहा है?' तब फिर मन में शरम आती है। तब फिर पत्नी से कहेगा, 'अरे, तू उठा ले अब।' अरे, तुझे उसे सिनेमा दिखाने की क्या ज़रूरत थी? अगर पत्नी बहुत कहे, तो वह तो कहेगी, लेकिन आपको समझना चाहिए कि आप फँस गए हो, तो अब उसका हल लाओ। पत्नी बहुत कहे न, तो उसका हल लाना, लेकिन उससे ऐसा मत कहना कि, 'चल सिनेमा देखने।' 'चल, चल' नहीं करना चाहिए। यह तो विवाह के समय भी सौदेबाजी करता है न!
इसके बजाय वह दुकान लगाए ही नहीं तो क्या बुरा है? बिना दुकान के पड़े रहना अच्छा। ऐसी दुकान शुरू करके फिर फँस जाते हैं! इसे मनुष्यत्व कैसे कहा जाएगा? मनुष्यत्व तो उसे कहते हैं कि जैसे बारह महीनों में दीवाली एक ही बार आती है। लेकिन लाभपाँचम तक उसके प्रतिस्पंदन रहते हैं, उसी तरह बहुत हुआ तो पूरे साल में पाँच दिन ऐसी आफत आए और बाकी के दिन सामान्य रूप से अच्छी तरह बीतें। लेकिन यह तो रोज़ आफत, बगैर आफत के तो कोई दिन ही नहीं है!
क्या भूल रह जाती है? संभालकर रखने के मल्टिप्लिकेशन से तो पूरा जगत् भटक रहा है। संभालकर रखने की तो ज़रूरत ही नहीं है न! संभालकर नहीं रखनी है। संभालकर नहीं रखने का भागाकार करने की भी ज़रूरत नहीं है। संभालकर रखने का मल्टिप्लिकेशन करने की ज़रूरत नहीं है और संभालकर नहीं रखने का भागाकार करने