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कर्तापन से ही थकान (१२)
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बिस्तर बिछा रहे हो ? बिस्तर बिछाकर क्या पा लेना है?' ऐसा है यह जगत्!
इन लोगों का देखकर मुझे भी बिस्तर की बुरी आदत पड़ गई थी। लोग बड़े-बड़े बिस्तर लेकर जाते थे, तो मैंने भी मुंबई से एक बिस्तर खरीदा और अंदर गद्दा डालकर यात्रा में ले जाता । हर बार मज़दूर मिल जाते थे, लेकिन एक दिन कोई मज़दूर नहीं मिला और मुझसे भी बिस्तर नहीं उठाया गया। अब मेरी क्या दशा हो? ऐसे खींच-खींचकर मेरा दम निकल गया और कोई उठवानेवाला भी नहीं मिला। तभी से सौगंध खाई कि आगे से उतना ही सामान गाड़ी में साथ में रखना है, जितना उठाया जा सके। इसलिए इतना छोटा सा बैग ही रखता हूँ, और कोई झंझट नहीं। और बिछाने के लिए चद्दर । वह चद्दर बिछाकर बैग को तकिये की तरह लेकर ऐसे ही सो जाता हूँ। लेकिन अगर बैग चुभे तो बैग में से तौलिया निकालकर, ऐसे सिर के नीचे रखकर सो गए कि झंझट खत्म। ऐसे उठाकर तो मेरा दम निकल गया था। तब से मैं समझ गया कि इन लोगों के साथ मैं कहाँ स्पर्धा में पड़ा ? यदि मज़दूर नहीं मिलें तो अपनी क्या दशा होगी ? बिस्तरा स्टेशन पर छोड़कर कहीं आ सकते हैं? पर उसे घर तो लाना ही पड़ेगा न ? भीतर चिढ़ मचती है कि 'लाओ, अब मज़दूर है नहीं। इसके बजाय तो यहीं पर छोड़ दो न !' लेकिन स्वभाव ऐसा था कि नहीं छोड़ पाते थे। क्योंकि ममता का स्वभाव ऐसा है कि वह कुछ भी नहीं छोड़ती।
लेकिन मुझे जितना - जितना समझ में आया कि तुरंत छोड़ देता था। जहाँ मार पड़े वहाँ तुरंत छोड़ देता था। फिर निश्चय कर लेता था। लेकिन ये सब बातें, मुझे ज्ञान हुआ उससे पहले की हैं। ज्ञान होने से पहले मुझमें ऐसी दृष्टियाँ उत्पन्न हुई थीं।
... तब दोनों सिरों से मुक्त हुए
ज्ञान से पहले, हमें सब स्टेशन पर छोड़ने आते थे, गाड़ी