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आप्तवाणी-७
पता चल जाता है, जबकि इस दूषमकाल में अक़्ल के बोरे बन गए हैं! अक़्ल का बोरा तो किसे कहते हैं? कि अंदर भरी हुई है कम अक़्ल और ऊपर लिखा है अक़्ल । माल निकालने पर सारी कमअक़्ली निकल आती है। नहीं तो दुनिया में मनुष्यों को कहीं दुःख होते होंगे ? तू मनुष्य बना है और यदि मनुष्य में भी दु:ख मिल रहा है, तो तू मनुष्य कहलाएगा ही कैसे ? यदि जानवरों को दुःख नहीं है, तो मनुष्य को दुःख क्यों रहना चाहिए? तू तेरी बाउन्ड्री नहीं समझता, तेरी काबिलियत क्या है वह नहीं समझता और लोगों के कहे अनुसार देख-देखकर चलता रहता है और आमने-सामने नकलें करता है। नकल तो बंदर करते हैं। मनुष्य नकल नहीं करते हैं, असल करते हैं। खुद की समझ से असल करते हैं कि मेरी हैसियत कितनी ? मुझे चार सौ रुपये तनख्वाह मिलती है, जबकि पड़ोसी की हैसियत कितनी है ? तो कहे, 'महीने में दस हज़ार कमाता है।' इसलिए हम उसकी बात को यहाँ पर घुसने ही नहीं दें। हम नहीं समझ जाएँ कि यहाँ यदि हमारी दृष्टि बदल जाएगी तो रोग घुस जाएगा? इसलिए घर में स्त्री से, बच्चों से कह देना चाहिए कि, 'भाई, अपनी आमदनी इतनी है। इसलिए इन लोगों की दृष्टि से अपना लेवल मत बनाना।' यानी कि सबकुछ समझना पड़ेगा न?
यह तो खुद के अहित में चल रहा है कि पड़ोसी सोफा ले आए, तब घर में पत्नी क्या कहती है कि, 'हम भी सोफा लाएँ।' अरे, पत्नी तो कहेगी कि सोफा लाओ, लेकिन पत्नी को पूछोगे नहीं कि, 'तुझे मेरी अर्थी निकालनी है या क्या?' लेकिन पत्नी को समझाना नहीं आता बेचारे को, कि पत्नी को किस तरह समझाऊँ और फिर पत्नी की आदत बिगाड़ता है। क्योंकि पति होना ही नहीं आया। ऐसे फिर पत्नी को बिगाड़ता है और अपने खुद के मन को भी इन लोगों ने बिगाड़ा है। खुद ही मन को बिगाड़ता है और फिर कहेगा कि, 'मेरा मन मेरी सुनता नहीं है।' यह तो तूने बिगाड़ा है। खुद अपने आप बिगाड़ा है। ऐसा तो कैसा कि