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निष्क्लुशितता, ही समाधि है (९)
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तेरा मन तेरे काबू में ही नहीं? उसका क्या, कोई कारण होगा न? उसे बिगाड़ा किसने? बच्चे को तो मानो न कि पड़ोसी ने बिगाड़ा! पड़ोसी बच्चे को बुलाकर कहेंगे कि, 'तेरे पिता जी वास्तव में ऐसे हैं।' उसके पिता का उल्टा बोलते हैं इसलिए फिर बच्चे को पड़ोसी अच्छे लगते हैं। वह समझता है कि ये चाचा बहुत अच्छे हैं। लेकिन चाचा बच्चों को बिगाड़ रहा होता है। यानी बच्चों को तो कोई दूसरा आदमी बिगाड़ सकता है, लेकिन अपने मन को कौन बिगाड़ता है? यह तो, ऐसा भान ही नहीं है कि ऐसा करूँगा तो मन बिगड़ जाएगा या सीधा चलेगा? यह तो क्या कहेगा कि मुफ्त में मिल रहा है न, हेवमोर आइस्क्रीम मुफ्त में मिल रही है न? चलो!! अरे, मुफ्त में मिल रहा है, लेकिन उसमें तेरा मन बिगड़ जाता है न। जब वह मुफ्त का चला जाएगा, फिर तेरी क्या दशा होगी? कुछ लोगों को तो अगर मुफ्त में मिले न, तो ब्रांडी का चस्का लग जाता है। पहले मुफ्त में शुरू करता है और फिर लत लग जाती है। इसलिए पहले तो लोगों को समझना चाहिए कि इस संसार में कुछ भी मुफ्त में लेने जैसा है ही नहीं। सबसे महँगी चीज़ इस दुनिया में कोई हो तो वह 'मुफ्त' है। इसलिए मुफ्त को कभी भी छूना मत। महँगी से महँगी, बहुत ही जोखिमवाली ऐसी महँगी चीज़ को अपने यहाँ नहीं घुसने देना चाहिए। मुफ्त तो बहुत बड़ी जोखिमदारी है और ये लोग तो मुफ्त को सौदा मान बैठे हैं और फिर खुद अपने आप को अक़्लवाला कहते हैं। सब को कहता फिरेगा कि, 'हमने कोई पैसेवैसे खर्च नहीं किए, ये तो मेरे दोस्तों ने ही खर्चे हैं!' अरे, तू मर रहा है। लेकिन उसका उसे भान ही नहीं न! आज मनुष्यों को किसी भी प्रकार का भान ही नहीं रहा। मोक्ष का भान नहीं रहा, उसमें तो हर्ज नहीं है। मोक्ष का भान तो नहीं होता, पहले से ही नहीं था, लेकिन संसार में हिताहित का भान चाहिए या नहीं चाहिए? संसार में मेरा किस तरह से हित होगा किस तरह अहित होगा, इतना भान तो होना चाहिए या नहीं?