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आप्तवाणी- -७
दादाश्री : जो आए उसे 'आ भाई, बैठ।' उसका सत्कार करे। अपने यहाँ चाय हो तो चाय, वर्ना जो हो वह, एक पराठे का टुकड़ा हो तो वह दे दें। पूछें कि, 'भाई, थोड़ा पराठा लोगे?' ऐसे प्रेम से व्यवहार करेंगे तो पुण्य बहुत हो जाएँगे । औरों के लिए करना, वही पुण्य ! घर के बच्चों के लिए तो हर कोई करता है। पुण्य ही, मोक्ष तक साथ में
प्रश्नकर्ता : क्या पुण्य के भाव आत्मा के लिए हितकारी
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हैं?
दादाश्री : वे आत्मा के लिए इसलिए हितकारी ज़रूर हैं कि वे पुण्य होंगे, तभी यहाँ सत्संग में 'ज्ञानीपुरुष' के पास आया जा सकेगा न? वर्ना, इन मज़दूरों के पाप हैं, इसलिए उन बेचारों से यहाँ आया किस तरह जाए? पूरे दिन मेहनत करते हैं, तब जाकर शाम को खाने के पैसे मिलते हैं । इस पुण्य के आधार पर तो आपको घर बैठे खाना मिलता है और थोड़ा-बहुत अवकाश मिलता है। अतः पुण्य तो आत्मा के लिए हितकारी है। पुण्य होंगे तो फुरसत मिलेगी। हमें ऐसे संयोग मिलेंगे। थोड़ी मेहनत से पैसा मिल जाएगा और पुण्य होंगे तो दूसरे पुण्यशाली लोग मिल जाएँगे, नहीं तो टुच्चे मिलेंगे ।
प्रश्नकर्ता : आत्मा के लिए वह अधिक हितकारी है क्या?
दादाश्री : अधिक हितकारी नहीं है, लेकिन उसकी ज़रूरत तो है न? कभी ‘एक्सेप्शनल केस' में पाप भी बहुत हितकारी हो जाते हैं। लेकिन पुण्यानुबंधी पाप होना चाहिए | पुण्यानुबंधी पाप होगा न, तो और अधिक हितकारी बन पड़ेगा। वर्ना अभी तो सभी पापानुबंधी पुण्य हैं। यह बंगला है, मोटर है, सबकुछ है, फिर भी पूरा दिन ‘किसी का ले लूँ, किसी का उड़ा लूँ, किसी का लूट लूँ' ऐसा होता रहता है । यह पुण्य तो तिर्यंच के स्टेशन पर जाने के लिए हैं ।