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पाप-पुण्य की परिभाषा (११)
१८१ सद्भाव के कर्म बाँधते हैं और पाप करे तो दुर्भाव के कर्म बाँधते हैं। जब तक हक़ का और अणहक्क (बिना हक़ का) का विभाजन नहीं हो जाता, तब तक जैसा लोगों का देखे, वैसा ही वह भी सीख जाता है। मन में रहता है अलग, वाणी में कुछ तृतियम ही बोलता है और आचरण में तो ओर ही प्रकार का होता है। अब ये मन, वाणी और वर्तन जब तक एकाकार नहीं होंगे तब तक कभी भी पुण्य नहीं बँधेगा, अर्थात् निरे पाप ही बँधेगे। इसलिए अभी तो लोगों की पाप की ही कमाई है।
पुण्य तो, पुण्यानुबंधी ही हों एक पुण्य ऐसा होता है जो भटकाता नहीं है, वैसा पुण्य इस काल में बहुत ही कम होता है और वह भी थोड़े समय बाद खत्म हो जाएगा, वह पुण्यानुबंधी पुण्य कहलाता है। अभी यह सब जो पुण्य दिख रहा है, वह पापानुबंधी पुण्य कहलाता है, और वह ऐसा पुण्य है जो भटका देता है।
प्रश्नकर्ता : पुण्यानुबंधी पुण्य का उदाहरण दीजिए।
दादाश्री : आज किसी व्यक्ति के पास मोटर-बंगला वगैरह सभी साधन हैं, पत्नी अच्छी है, बच्चे अच्छे हैं, नौकर अच्छे हैं, यह सबकुछ जो अच्छा मिला है, उसे क्या कहते हैं? लोग तो कहेंगे कि, 'पुण्यशाली है।' अब, वह पुण्यशाली क्या कर रहा है, वह हम देखें तो पूरे दिन साधु-संतों की सेवा करता है, दूसरों की सेवा करता है और मोक्ष की तैयारी करता है। ऐसा सब करतेकरते उसे मोक्ष के साधन भी मिल आते हैं। ऐसा कर रहा हो तो हम समझ जाएँगे कि यह पुण्यानुबंधी पुण्य है। अभी पुण्य है और नया पुण्य बाँध रहा है। वर्ना इस पुण्य में तो निरे पाप के ही विचार आते हैं कि, 'किसका ले लूँ और किसका खा जाऊँ और किसका इकट्ठा करूँ।' वह अणहक्क (बिना हक़ का) का भोग लेता है। वह पापानुबंधी पुण्य कहलाता है।