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पाप-पुण्य की परिभाषा (११)
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दादाश्री : तो माफी माँग लेना। प्रश्नकर्ता : लेकिन पाप तो बँधेगे न?
दादाश्री : निरे पाप ही बंध रहे हैं न! यह सुबह उठने से लेकर शाम तक निरे पाप ही बाँध रहा है! मोक्ष का मार्ग तो कहाँ गया, लेकिन निरे पाप ही बाँध रहा है।
वास्तविक ज्ञान ही उलझन में से छुड़वाए
लोगों ने जिसे जाना है, वह तो लौकिक ज्ञान है। सच्चा ज्ञान तो वास्तविक होता है और जब वास्तविक ज्ञान हो तब किसी प्रकार का अजंपा नहीं होने देता। वह भीतर किसी प्रकार की पज़ल खड़ी नहीं होने देता। इस भ्रांतिज्ञान से तो निरी पज़ल ही खड़ी होती रहती हैं। और वे पज़ल फिर सोल्व नहीं हो पातीं! बात सही है, लेकिन वह समझ में आनी चाहिए न? अच्छी तरह समझे बिना कभी भी हल नहीं आएगा। समझ में दृढ़ करना पड़ेगा। इसके लिए पाप धोने पड़ेंगे। जब तक पाप नहीं धुलेंगे, तब तक ठिकाने पर नहीं आएगा। ये सब पाप ही उलझा देते हैं। पापरूपी
और पुण्यरूपी रुकावटें हैं बीच में, वे ही मनुष्य को उलझाती हैं न!
अनंत जन्मों से भटकते-भटकते इस भौतिक के ही पीछे पड़े हैं। इस भौतिक से अंतर शांति नहीं मिलती। रुपयों का बिस्तर बिछा लेने से क्या नींद आएगी? यह तो खुद की सभी अनंत शक्तियाँ व्यर्थ हो गईं!