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पाप-पुण्य की परिभाषा (११)
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प्रश्नकर्ता : पुण्य बंधन से तो संसार बढ़ता है, यही भावार्थ हुआ न?
दादाश्री : पुण्य यों तो हितकारी नहीं है, पुण्य वह एक प्रकार से हेल्प करता है । पाप होंगे तो 'ज्ञानीपुरुष' मिलेंगे ही नहीं । 'ज्ञानीपुरुष' से मिलना हो लेकिन पूरे दिन मिल में नौकरी कर रहा हो तो किस तरह मिल पाएगा? यानी इस प्रकार से पुण्य हेल्प करता है।
प्रश्नकर्ता : जिस प्रकार पाप से संसार बढ़ता है, उसी प्रकार पुण्य से भी संसार बढ़ता है न?
दादाश्री : पुण्य से भी संसार तो बढ़ता है, लेकिन जैसेजैसे पुण्य बढ़ता है वैसे-वैसे संसार बढ़ता है और वैसे-वैसे मनुष्य को सच्चा वैराग्य उत्पन्न होता है, वर्ना सच्चा वैराग्य ही उत्पन्न नहीं होता। यह तो जब तक नहीं मिले तब तक ऐसा होता है, लेकिन यदि मिल जाए न, तो वापस जैसा था वैसे का वैसा ही बन जाता है। इसलिए उसे सभी एक्सपिरियन्स होने चाहिए। यहाँ से जो मोक्ष में गए थे न, वे सब ज़बरदस्त पुण्यशाली थे। देखने जाओ तो उनके आसपास दौ सौ - पाँच सौ तो रानियाँ होती थीं और बहुत बड़ा राज्य होता था। खुद को पता भी नहीं होता था कि कब सूर्यनारायण उदय हुए और कब अस्त हो गए। पुण्यशाली का जन्म तो ऐसे ठाठ - बाठ में होता है । बहुत सारी रानियाँ होती हैं, ठाठ-बाठ होते हैं फिर भी वे उकता जाते हैं कि इस संसार में क्या सुख है भला? पाँच सौ रानियों में से पचास रानियाँ उन पर खुश रहती थीं, बाकी की मुँह चढ़ाकर घूमती रहती थीं। कुछ तो राजा को मरवाना चाहती थीं । अर्थात् यह जगत् तो अत्यंत कठिनाईयोंवाला है। इसमें से पार निकलना बहुत मुश्किल है। 'ज्ञानीपुरुष' मिल जाएँ तो सिर्फ वे ही छुटकारा दिलवा सकते हैं, वर्ना कोई भी छुटकारा नहीं दिलवा सकता। 'ज्ञानीपुरुष' छूट चुके हैं, इसलिए हमें छुटकारा दिलवा सकते हैं ।