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निष्क्लुशितता, ही समाधि है (९)
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की भी ज़रूरत नहीं है। यह तो पूरे दिन संभालने में और संभालने में, संभालने में और संभालने में! फिर भी कुछ नहीं मिलता
और न ही कोई बरकत आती है! इतना सारा खाना-पीना, इतनी कमाई होने के बावजूद भी कोई सुखी नहीं है? यह किस प्रकार का?! व्यवहार में ऐसा निष्क्लेश तो होना चाहिए न? व्यवहार थोड़े ही कहीं क्लेशवाला है? व्यवहार तो निष्क्लेश ही है, सिर्फ उसे जीवन जीना नहीं आता। इसलिए उसे क्लेश उत्पन्न हो जाता
क्लेशवाले जीवन को मनुष्यजीवन कह ही नहीं सकते! क्योंकि कोई जानवर तक क्लेश नहीं करता। इन जानवरों को भीतर दुःख आए और वेदना हो तब आँखों में से पानी टपक जाता है, रोते ज़रूर हैं, लेकिन मनुष्य के अलावा कोई क्लेश करता ही नहीं। मनुष्यों में कहीं क्लेश होता होगा? फिर भी कोई ऐसी भूल रह जाती है कि जिससे क्लेश उत्पन्न हो जाता है। कुछ भूल रह जाती है न! भगवान ने कहा था कि क्लेश निकाल देने के लिए कहीं ज्ञान की ज़रूरत नहीं है, बुद्धि की ज़रूरत है। बुद्धि तो अच्छी तरह से प्रकाशमान हो सके ऐसी है, उससे सारा क्लेश निर्मूल हो सकता है। लेकिन देखो न, क्लेश के तो पूरे कारखाने खोले हैं! अब एक्स्पोर्ट भी कहाँ करे? फॉरिनवालों को पूछवाएँ तो कहेंगे, 'हमारे यहाँ बहुत कुछ है, लेकिन फिर भी सोने के लिए गोलियाँ खानी पडती है। बीस-बीस गोलियाँ खाते हैं तब कहीं जाकर नींद आती है।' पूरे वर्ल्ड का सोना, वर्ल्ड की लक्ष्मी उनके पास है, फिर भी गोली खानी पड़ती है! फिर भी उसे नींद नहीं कह सकते। नींद तो किसे कहते हैं? कि जो सहज स्वभावी हो। यह तो इन्हें जड़ बना दिया है। जैसे दवाई लगाकर सुन्न कर देते हैं न? ऐसे सुन्न कर देते हैं। अरे, सुन्न करने के बजाय ऐसे ही खुली
आँखों से पड़ा रह न! बहुत हुआ तो बस जागरण होगा न? तो सुन्न होने के बजाय यह क्या बुरा है? कहीं सुन्न तो हुआ जाता होगा?