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आप्तवाणी-७
जो हो, लेकिन हमारा मन गढ़ा हुआ है। अब, अभी यह पैर टूटा और उसके उपचार में यदि मन को कोई दु:ख हो जाए तो वह मन के डेवेलपमेन्ट को तोड़ेगा। इसलिए फिर हमने दूसरे उपचारों के लिए मना कर दिया और यह भी कहा था कि यह शीशी (बेहोशी की दवाई) हमें मत सूंघाना। क्योंकि हमारा जो मन है उसने तो इन पिछले बीस वर्षों में एक सेकन्ड भी कभी डिप्रेशन देखा ही नहीं, और बिल्कुल एलिवेट भी नहीं हुआ और ये गिर पड़ा, फिर भी कभी भी, एक क्षण के लिए भी आनंद नहीं गया
प्रश्नकर्ता : यह तो शरीर है और वह तो मन है।
दादाश्री : नहीं। यह शरीर है फिर भी यह पैर टूटे तो भीतर वेदना होनी चाहिए, उस वेदना से जो तकलीफ होती है, बैठने की प्रक्रिया, उसमें जो कुछ दुःख होना चाहिए था, लेकिन वह दुःख नहीं हुआ। अभी संडास जाना पड़ता है, ऐसी सब क्रियाएँ होती हैं, फिर भी शरीर पर कोई असर नहीं होता। बैठकर उठता हूँ फिर भी असर नहीं होता, एक मिनट के लिए भी असर नहीं होता। आपका भी यह शरीर जुदा है, लेकिन अभी तक जुदापन का वैसा एक्जेक्ट अनुभव नहीं हुआ है न! जुदा है, प्रत्यक्ष जुदा दिखता है। ये सब बातें भी सही हैं, लेकिन जब तक शरीर चिपका हुआ है तब तक वेदना उत्पन्न किए बगैर रहेगा नहीं। मन-बुद्धिचित्त और अहंकार इतने सुंदर डेवेलप हो चुके हैं कि वे बीस साल से हिले तक नहीं, डिप्रेस नहीं हुआ, ना ही एलिवेट हुआ। आपको समझ में आया न? यानी कि हमारा मन कितना अधिक डेवेलप हो चुका है, चित्त कितना सुंदर डेवेलप हो चुका है, अहंकार कितना अधिक ऐसे डेवेलप हो चुका है! अब ऐसा सुंदर डेवेलप हो चुका हो वहाँ पर इस पैर को जोड़ने के लिए वह शीशी सूंघाने का समय आए, तो ऐसी स्थूल चीज़ के लिए मुझे, मेरे अंदर मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार जो इतने डेवेलप हो चुके हैं, वे बिगड़