________________
लक्ष्मी की चिंतना (२)
समझता है कि इस रेती में से लक्ष्मी आ रही है। इसलिए वह रेती को घोटता रहता है, लेकिन कुछ नहीं मिलता। लक्ष्मी तो पुण्य का फल है, सिर्फ पुण्य का ही फल है। मेहनत का फल होता न, तब तो सारी मज़दूरों के हाथ में ही गई होती। और अक़्ल का फल होता न, तो इन लोहे के व्यापारियों जैसा अक़्लवाला कोई नहीं है। तो सारी लक्ष्मी वहाँ पर गई होती। लेकिन ऐसा नहीं है। लक्ष्मी तो पुण्य का फल है।
पुण्यशाली तो किसे कहेंगे? ___ लक्ष्मी इंसान को मज़दूर बना देती है। यदि लक्ष्मी अधिक आ जाए तो फिर इंसान मज़दूर जैसा बन जाता है। इनके पास लक्ष्मी अधिक है, लेकिन साथ-साथ ये दानेश्वरी हैं, इसलिए अच्छा है। नहीं तो मज़दूर ही कहलाएँगे न? और पूरे दिन गधे की तरह काम करता ही रहता है, उसे पत्नी की नहीं पडी होती. बच्चों की नहीं पड़ी होती, किसी की भी नहीं पड़ी होती। सिर्फ लक्ष्मी की ही पड़ी होती है। यानी लक्ष्मी धीरे-धीरे इंसान को मज़दूर बना देती है और फिर वह तिर्यंच गति में ले जाती है, क्योंकि पापानुबंधी पुण्य है न! पुण्यानुबंधी पुण्य हो तो हर्ज नहीं है। पुण्यानुबंधी पुण्य तो किसे कहते हैं कि पूरे दिन में सिर्फ आधा घंटा ही मेहनत करनी पड़े। वह आधा घंटा मेहनत करता है और सारा काम धीरे-धीरे सरलता से चलता रहता है। दानेश्वरी हैं, इसलिए ये बच गए, नहीं तो भगवान के वहाँ ये भी मजदूर ही माने जाते।
यह जगत् तो ऐसा है, कि इसमें भोगनेवाले भी होते हैं और मेहनत करनेवाले भी होते हैं। सबकुछ मिला-जुला होता है। मेहनत करनेवाले ऐसा समझते हैं कि यह 'मैं कर रहा हूँ।' उनमें इस बात का अहंकार होता है। जबकि भोगनेवाले में वह अहंकार नहीं होता, लेकिन उसे भोक्तापन का रस मिलता है। उस मेहनत करनेवाले को अहंकार का गर्वरस मिलता है!