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भय में भी निर्भयता (६)
प्रश्नकर्ता : मैं अभी कुछ अच्छा करूँ, सेवा करूँ, तो वह सब पुराना ही है?
दादाश्री : पुराना ही है, नया तो कुछ होता ही नहीं। नया अंदर होता रहता है कि जो आपको पता नहीं चलता। अंदर नये बीज डलते रहते हैं, वह चार्ज होता रहता है, उसका पता नहीं चलता, लेकिन यह जो डिस्चार्ज होता है, उतना ही आपको पता चलता है।
एक व्यक्ति अच्छा काम करते थे, उन्हें पचास हज़ार रुपये धर्म में दान देने को कहा। हम लोग यहाँ पर बैठे हो और ऐसी बात की तो उन्होंने कहा, 'मैं पचास हज़ार रुपये दूंगा।' फिर वे अपने घर गए। पडोसी ने पूछा कि, 'आपने पचास हजार रुपये दान में दिए?' तब वे कहने लगे कि, 'मैं हूँ ऐसा तो हूँ नहीं, लेकिन इन भाई के दबाव के कारण मैंने दिए हैं।'
__ अब पूर्वजन्म में दान देने के भाव किए थे तो आज दान दिया गया, लेकिन अभी बीज डल रहा है कि, 'मैं किसी को हूँ ऐसा हूँ ही नहीं।' यानी ले लूँ ऐसा हूँ! तो लोगों का ले लेने का बीज डल रहा है। यानी कि दान देने के बावजूद भी उल्टा बीज डाला!
जगत् में निर्भयता है ही कहाँ? भय क्यों लगना चाहिए? तुझे कुछ भय नहीं लगता? प्रश्नकर्ता : नहीं, ज़रा सा भी भय नहीं लगता।
दादाश्री : लो, यह ऐसा कह रहा है कि भय नहीं लगता! यह तो पत्नी ज़रा नीचे गई हो, तो भी भय लगता रहता है कि क्या होगा? फिर भी मुझे कह रहा है कि, 'भय नहीं लगता!' साँप पंद्रह फुट दूर हो, और वहीं से देखे तब भी भय लगता है, तब तो काँप उठता है! और कहता है कि, 'मुझे भय नहीं लगता!'