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आप्तवाणी-७
है, ऐसा नहीं होना चाहिए।' फिर मन में ऐसे पछताता भी है, सबकुछ करता है, लेकिन वापस फिर से जब ऐसा हो जाए, तब वैसे का वैसा ही। क्योंकि उसके पास ज्ञान प्रकाश नहीं है न! घोर अँधेरा है। अँधेरे में तो जमाई टकराए तब भी कहेगा कि, 'लुटेरा टकराया।' और लुटेरा टकराए तो कहेगा, 'जमाई टकराया।' यानी कि ऐसा है!
प्रश्नकर्ता : कढ़ापा-अजंपा का आधार तो अज्ञान ही है न?
दादाश्री : अज्ञान ही। अँधेरे के कारण ही वह लुटेरे को जमाई मानता है, तब वह अज्ञान नहीं तो और क्या? अँधेरे में लुटेरा टकरा जाए तो कहेगा, 'मेरे जमाई आए लगते हैं,' इसी तरह यह भी अँधेरे का डिसीज़न कहलाता है। अँधेरे में कौन कह सकता है कि यह जमाई ही है या यह लुटेरा ही है? अँधेरे में जमाई को कहेंगे कि 'लुटेरा टकरा गया।' ऐसा उल्टा-सीधा हो जाता है। लोग क्या ऐसा नहीं समझते कि 'यह कुछ गलत है?' सबकुछ समझते हैं, लेकिन भीतर अँधेरा हो तो क्या करें?
क़ीमत, प्याले की या डाँटने की? बड़े मिल मालिक भी, यदि नौकर कभी दस कप-प्लेट लेकर आ रहा हो और ट्रे हाथ में से गिर जाए, तब भी उसका आत्मा फूट जाता है। अरे, चार-चार मिलों के मालिक हो और कैसे हो? ऐसे तो कैसे हो कि इस प्याले में ही आत्मा आ गया? चार मिलों का मालिक, तो क्या तू गरीब है?
टोकना, लेकिन किस हेतु के लिए? ज्ञानीपुरुष तो क्या कहते हैं? पहले तो उसे पूछेगे कि, 'भाई, कहीं तू जला तो नहीं न?' फिर कहेंगे कि, 'ज़रा संभालकर चले तो अच्छा है।' यानी ज्ञानी तो सब कहते हैं, लेकिन वीतरागता से। अनुभव ज्ञानी तो भले ही कितना भी कहें, करें, फिर भी खुद वीतरागता में रहते हैं। शायद मुँह पर डाँट भी दें, लेकिन