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कढ़ापा-अजंपा (७)
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'पराया' 'समझे,' तो समता बरते पूरी बात समझे तो हल आएगा, नहीं तो इसका हल नहीं आएगा व कॉज़ेज़ और इफेक्ट, इफेक्ट और कॉज़ेज़, कॉज़ेज़ और इफेक्ट चलते रहेंगे। और रोज़ कहीं अजंपा नहीं होता। यह तो पास में किसी और के कमरे में से प्याले फूटने की आवाज़ आए तो कोई उपाधि नहीं है, लेकिन अपने कमरे में से प्याले फूटने की आवाज़ आए, तो अजंपा हो जाएगा न? किसलिए? क्या कारण होगा?
प्रश्नकर्ता : अपनी चीज़ के प्रति मोह है, और पड़ोसी के वहाँ का सामान अपना नहीं लगता।
दादाश्री : ऐसा है, यह मोह नहीं है, ममता है कि 'यह मेरा नुकसान हो गया, दस-पंद्रह रुपये के प्याले खत्म हो गए!'
और पड़ोसी के वहाँ, 'उसका गया इसमें मुझे क्या?' जबकि खुद के घर पर फूट जाएँ तो उस पर असर होता है। अब खुद के घर पर फूटे हों, लेकिन उस पर ऐसा असर हो जैसे पड़ोसी के घर पर फूट गए हों तो वह भगवान बन जाए! लेकिन लोग तो बहुत पक्के हैं न! पड़ोसी के घर पर फूटें, उसका असर नहीं होने देते और खुद के घर पर फूट जाएँ, तभी उसका असर होता है, ऐसे पक्के न! लेकिन तब वह मूर्ख बन जाता है! इस दुनिया में जो लोग पक्के कहे गए, वे ही भगवान के वहाँ मूर्ख बने। इस दुनिया में जो भोले कहलाए, वे भगवान के वहाँ सच्चे माने गए! और यहाँ पर जो पक्के रहे, वे भगवान के वहाँ मारे ही गए समझो! ऐसी बात कहता हूँ, तो सुनना अच्छा लगता है न? या फिर आपका समय बिगड़ रहा है?
नासमझी, दो नुकसान लाए! प्रश्नकर्ता : ना, ना। यह सब बातें तो समझने जैसी हैं। दादाश्री : यानी यह जो ममता है, वही सब झंझट करवाती