________________
भय में भी निर्भयता (६)
९१
नुकसान होता । इसलिए जहाँ-जहाँ पर बुद्धि का उपयोग होता है न, वहाँ-वहाँ वह निरा खोट का ही व्यापार है और जहाँ ज़रूरत हो, वहाँ पर उसकी हद में उपयोग हो ही जाता है। वहाँ पर बुद्धि अपने आप कुदरती रूप से ही जोइन्ट हो चुकी है, अंत:करण में वह तालमेल सहित जोइन्ट हो चुकी है। उसमें हम एक्सेस बुद्धि का पयोग करते हैं, उससे यह सब झंझट खड़ा हुआ है
प्रभुश्री ने कृपालुदेव को पत्र लिखा था कि 'मुझे ऐसा लगता है कि अब देह छूट जाएगी, अतः मुझे आपके दर्शन कब होंगे ?' तब कृपालुदेव ने पत्र लिखा 'ऐसा किस वजह से लगता है कि आपकी देह छूट जाएगी' तब कहा कि, 'मेरा नाम लल्लूभाई है और यहाँ पर एक व्यक्ति जो दर्शन के लिए आते थे उनका नाम भी लल्लूभाई है। वे लल्लूभाई दो-तीन दिन बीमार हुए और मर गए और मैं तो एक महीने से बीमार हूँ। मेरी और उनकी राशि एक ही है।' अब यह उन्होंने बुद्धि का उपयोग किया। तब कृपालुदेव ने उन्हें लिखा कि, 'मरने का भय मत रखना'। ऐसा लिखा ताकि फिर वहाँ पर उनकी बुद्धि ठिकाने रहे। कोई कहे या फिर डॉक्टर कहे कि, 'कोई हर्ज नहीं ।' तब बुद्धि ठिकाने रहती है। तो क्या डॉक्टर जो कहता है वह चीज़ सही ही है? वह भी अंदाज से ही बोलता है न? लेकिन जिस तरह डॉक्टर का कहा हुआ सही मानता है वैसे ही आपको खुद अपने आप को सही मानने जैसा नहीं लगता? तो फिर डॉक्टर के कहे बगैर तू ही पक्का कर न, कि 'कोई परेशानी नहीं। मुझे कुछ भी नहीं होनेवाला ।' और अगर परेशानी आएगी, तो वह छोड़ेगी नहीं । इसलिए परेशान होने की ज़रूरत ही कहाँ रही ? भय रखने का कारण ही कहाँ रहा? अधिकतर तो, इंसान शंका से ही मर जाता है, शंका ही इंसान को मार डालती है
I
प्रश्नकर्ता : बीमार पड़ जाए, तो उसे इलाज तो करवाना ही पड़ेगा न?