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आप्तवाणी-७
फार्म में साथ में ले गए, वहाँ पर बगीचा दिखाया, फल के बगीचे दिखाए। फिर वहाँ से सौ एक फुट के एरिया में घास उगी हुई
थी, उस घास को पार करके दूसरी तरफ जाना था। अब वह घास तो इतनी-इतनी दो-दो फुट की हो गई थी। इसलिए उन्होंने क्या किया? कि कूद-कूदकर चलने लगे। तीन-तीन, चार-चार फुट की छलाँग लगाकर चलने लगे। और मैं सीधी तरह से अपने हिसाब से चला। मैं कहाँ ऐसी छलाँगें लगाऊँ? बाहर निकलने के बाद मैंने उनसे कहा कि, 'आप तो बहुत अंधश्रद्धालु इंसान हो!' तब उन्होंने कहा, 'ऐसा कैसे? कहाँ अंधश्रद्धा देखी?' तब मैंने कहा कि, 'यह आप कूद-कूदकर पैर रख रहे थे, वह किस आधार पर?' 'अरे, किसी जगह पर साँप या कुछ होता तो?' 'जहाँ आपका पैर पड़ रहा था, वहाँ साँप है ही नहीं ऐसा विश्वास आपको कैसे हुआ?' तब कहा कि, 'ऐसा विश्वास तो नहीं था।' तब मैंने कहा कि, 'इसी को अंधश्रद्धा कहते हैं। इसमें मैं अपनी तरह रौब से चला ही न! मुझे ऐसी अंधश्रद्धा है ही नहीं, मुझे श्रद्धा ही है। आप कूदते हो, आपकी वह अंधश्रद्धा आपकी समझ में आई या नहीं? पाँच फुट दूर से छलाँग लगाई, लेकिन जहाँ पैर रखते हो, वह किस आधार पर? रात को अँधेरा हो गया हो, फार्म से वापस लौटते समय, बिना लाइट के आगे चलते हैं, वह किस आधार पर? कहीं कोई साँप आ जाएगा तो क्या होगा, उसका क्या भरोसा?'
यह 'ज्ञान' मिलने से पहले लोगों को अनेक प्रकार के भय से संताप रहा करता है कि, 'ऐसा हो जाएगा, वैसा हो जाएगा।' अरे भाई, ऐसा भी नहीं होगा और वैसा भी नहीं होगा। खापीकर चैन से सो जा न! घर पर खाने-पीने का है, फिर क्या चाहिए? कल की चिंता आज नहीं करनी है, अभी खा-पीकर सो जा और थोड़ा भगवान का नाम ले और यदि शुद्धात्मा प्राप्त किया हो तो 'शुद्धात्मा, शुद्धात्मा' कर!
जगत् भय रखने जैसा है ही नहीं और जहाँ पर निरंतर