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आप्तवाणी-७
ही रहेंगी। और उलझन में कुछ भी ठीक से नहीं हो पाता। उन उलझनों के कारण कुछ भोग भी नहीं पाते न! कैसे भोगे? क्योंकि सिर पर तलवार लटकी रहती है वहाँ!
प्रश्नकर्ता : भय में रहना पड़ता है।
दादाश्री : यह जगत् भय में रहकर ही सब भोगता है, इसके बजाय तो नहीं भोगना अच्छा।
इसमें परवशता नहीं लगती? अन्य सभी योनियों के जीव परवश हैं, यह मनुष्य जन्म परवश और स्ववश दोनों हैं। जब तक इन मनुष्यों में अज्ञानता होती है तब तक परवशता और ज्ञान होने के बाद फिर स्ववश, खुद के वश में होता है। अन्य सभी योनियों में परवशता ही है। परवशता यानी, क्या संयोगों के अधीन रहना पड़ता है कभी? ये सभी लोग संयोगों के अधीन ही हैं। भोजन की थाली मिले वह भी संयोगों के अधीन और नहाने का पानी मिले, वह भी संयोगों के अधीन, यह सब व्यवहार संयोगों के अधीन ही है।
__ अभी तक उलझनों में थे, निरी उलझनें! और फिर पिसे हुए को ही पीसना, तो क्या होगा? यह तो वही की वही कोठड़ी, वही की वही खटिया और वही का वही पलंग और वही का वही तकिया। अब शर्म नहीं आए? मुझे तो बहुत बोरियत होती थी, वही कमरा और वही पलंग देखकर! रोज़-रोज़ नया-नया नहीं चाहिए? रोज़-रोज़ वैसा नया नहीं मिल रहा हो तो 'अपने घर' चले जाना ही अच्छा। अपने घर पर सभी प्रकार का वैभव है। अपने घर का मतलब आप समझे? यदि यहाँ पर संसार दशा में रोज़ नया-नया नहीं मिले, वेराइटी नहीं मिले, तो अपने घर, नहीं चले जाएँ? हमें तो, रोज़ वही का वही तकिया और वही का वही पलंग, तो मुझे तो बोरियत होती थी। यह वही की वही थाली और वही का वही आसन, और वही की वही एक दिन