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चिंता से मुक्ति (५)
या बुरे, उसमें हर्ज नहीं। वे फिर भीतर खून नहीं जलाते, वर्ना यह चिंता तो खून जलाती है, मन जलाती है। जब चिंता हो रही हो न, उस घड़ी अगर बच्चा कुछ कहने आए तो उस पर भी उग्र हो जाता है, यानी कि हर प्रकार से नुकसान करती है। यह अहंकार ऐसी चीज़ है कि पैसा हो या पैसा नहीं हो, लेकिन यदि कोई कहे कि, 'इस चंदूभाई ने मेरा सबकुछ बिगाड़ दिया,' तब भी बेहद चिंता और बेहद उपाधि! और जगत् तो ऐसा है कि हमने नहीं बिगाड़ा हो, फिर भी कहता ही है न?
प्रश्नकर्ता : चिंता, वह अहंकार की निशानी है, इसे थोड़ा समझाने की विनती है।
दादाश्री : चिंता, वह अहंकार की निशानी किसलिए कहलाती है कि उसे मन में ऐसा लगता है कि, 'मैं ही यह चला रहा हूँ,' इसलिए उसे चिंता होती है। इसे चलानेवाला 'मैं ही हूँ,' इसलिए उसे 'इस बेटी का क्या होगा? इस बेटे का क्या होगा? इस तरह काम पूरा नहीं होगा तो क्या होगा?' वह चिंता खुद के सिर पर लेता है। खुद अपने आपको कर्ता मानता है कि 'मैं ही मालिक हूँ और मैं ही कर रहा हूँ,' लेकिन वह खुद कर्ता है नहीं और बेकार की चिंताएँ मोल लेता है।
कर्ता कौन है? ये संयोग कर्ता हैं। ये सभी संयोग, साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स इकट्ठे हों तभी कर्म हो सके, ऐसा है। तो अपने हाथ में सत्ता नहीं है। हमें संयोगों को देखते रहना है कि संयोग कैसे हैं! संयोग इकट्ठे हो जाएँ, तब काम हो ही जाता है। कोई व्यक्ति मार्च महीने में बरसात की आशा रखे तो वह गलत कहलाएगा, और जून की पंद्रह तारीख हुई कि वे संयोग इकट्ठे हो जाएँगे, काल का संयोग इकट्ठा हो जाए, लेकिन अगर बादल का संयोग नहीं मिले तो बादल के बिना बरसात कैसे होगी? लेकिन बादल आ गए, काल पक गया, फिर बिजलियाँ चमकी, दूसरे एविडेन्स मिल गए तो बरसात होगी ही। यानी संयोग मिलने