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[६] भय में भी निर्भयता
वाणी कठोर, लेकिन रोग निकाले ऐसा जीवन किस काम का है फिर? लाइफ तो, लाइफ होनी चाहिए या नहीं? पूरा ब्रह्मांड विरोध करे तब भी आपको घबराहट नहीं हो, वैसा होना चाहिए या नहीं होना चाहिए? तेरे पास सभी सामान है। जितना सामान मेरे पास है, उतना सभी सामान तेरे पास भी है, लेकिन तुझे किसी ने वह दिखाया नहीं है, इसलिए वह सारा माल भीतर वैसे ही आवरण में पड़ा हुआ है। मेरे जैसा कोई ज्ञानी मिले तब फिर से अनावृत कर देगा, 'ले, तू तेरा खा। मैं निमित्त हूँ।' यदि खुद का 'सामान' भोग रहा हो तो भी ठीक है, लेकिन यह तो परायों से आशा रखता है कि ये कुछ दें तो अच्छा। अरे, वह खुद ही लोगों से कुछ आशा रखता है, वह तुझे क्या देगा? और तूने ऐसा कोई नामवर देखा है कि जिससे आशा रखी जा सके? और बहुत माँगें, तब शर्म के मारे पाँच लाख देगा भी सही। लेकिन तब भीतर मान की भीख रहती है, कीर्ति की भीख रहती है, नाम का लालच रहता है! मेरी बात कोमल नहीं है न? जरा कठोर लगती है न?
प्रश्नकर्ता : जो कोमल हो, वह काम की ही नहीं।
दादाश्री : मेरी बात ज़रा कठोर है, लेकिन भीतर जुलाब करके सारा रोग निकाल देगी। निरा रोग ही भरा हुआ है! और फिर किसी संत पुरुष के पास जाओ तब वे कहेंगे, 'आओ भाई,