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आप्तवाणी-७
पैसा तो पसीने की तरह आता है। जिस तरह किसी को पसीना अधिक आता है और किसी को कम पसीना आता है और जिस तरह पसीना हुए बगैर नहीं रहता उसी तरह यह पैसा भी आता ही है लोगों के पास!
मुझे तो शुरू से ही पैसों की अटकण ही नहीं थी। बाईस साल का था, तभी से मैं व्यापार कर रहा था। फिर भी, मेरे घर पर जो कोई भी आए हों, उनमें से कोई मेरे व्यापार की बात जानता ही नहीं था। बल्कि मैं ही उन्हें पूछता रहता था कि आप किसी परेशानी में हैं क्या?
कमी या भराव नहीं, वही उत्तम! हमारे गाँव में सत्संग के लिए बुलाया था, तो वहाँ पर हम सत्संग कर रहे थे। उस गाँव के एक भाई थे न, वे चचेरे भाई थे, वे टेढ़ा बोलते थे। ऐसा बोले कि, 'आप नीचे दबाकर बैठे हैं, खूब मोटी रकम दबाकर बैठे हैं, तो अब चैन से सत्संग होगा ही न!' मैं समझ गया कि यह चचेरेपन के गुण के कारण बोल रहे हैं, उनसे सहन नहीं हो रहा था न! फिर मैंने कहा कि, 'मैं क्या दबाकर बैठा हूँ, वह आपको कैसे पता चले? बैंक में क्या है, वह आपको क्या पता चले?' तब कहने लगे, 'अरे, दबाए बगैर तो ऐसे चैन से सत्संग होगा ही कैसे?' मैंने कहा कि, 'बैंक में जाकर पता लगा आओ।'
मेरे यहाँ कभी भी कमी नहीं पड़ी और भराव भी नहीं हुआ। लाख रुपये आने से पहले तो कोई न कोई बम आ जाता था और वे खर्च हो जाते। इसलिए भराव तो होता ही नहीं था कभी भी और कमी भी नहीं पड़ी, बाकी कुछ भी दबाया-किया नहीं। क्योंकि हमारे पास गलत धन आएगा, तभी तो दबाएँगे न? ऐसा उल्टा धन ही नहीं आता तो दबाएँ कैसे? और ऐसा हमें चाहिए भी नहीं। हमें तो कमी नहीं पड़े और भराव भी नहीं हो