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अनेकान्त 67/1,
जनवरी-मार्च 2014
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गाथा में उसका उल्लेख व विजयोदया टीका में गाथा संख्या २६ की व्याख्या करने में अन्य मत को उद्धृत करते पंडितमरण के पर्याय के रूप में मिलता है, क्योंकि जो पंडितमरण के भक्तप्रत्याख्यान आदि भेद हैं, वे ही गाथा में प्रशस्तमरण के भेद दर्शाये गये हैं, इस प्रकार चार प्रकार के पंडित कहे गए हैं, उनमें जिसका पांडित्य दर्शन, ज्ञान और चारित्र में अतिशयशाली है, उसे पंडितपंडित कहते हैं और जिसका पांडित्य प्रकर्ष से रहित है, वह पंडित है तथा जिसमें बालपन और पांडित्य दोनों होते हैं, वह बालपंडित है व उसका मरण बालपंडितमरण है एवं जिसमें चारों प्रकार के पांडित्य में एक भी प्रकार का पांडित्य नहीं होता, वह बाल है व उसका मरण बालमरण है और जो सबसे हीन है, उसका मरण बालबालमरण है।" सर्वार्थसिद्धि में प्रशस्त को परिभाषित करते हुए पूज्यपाद स्वामी लिखते हैं कि -
कर्मनिर्दहनसामर्थ्यात् प्रशस्तम् । सर्वार्थसिद्धि, ९ / २८
अर्थात् जो कर्मों के निर्दहन करने में सक्षम है, वह प्रशस्त है। इसलिए प्रशस्त की प्रक्रिया में कर्मों के निर्दहन करने की बात प्रमुख रूप से है, वैसे भी पंडितपंडितमरण होता ही तब है, जब सारे कर्म जलकर राख हो जाते हैं, बाकी पंडित व बालपंडित मरण में क्रमशः कर्मों के निर्दहन करने की अंतिम प्रक्रिया का सुनिश्चय जरूर हो जाता है और इस प्रकार जीव का मुक्ति के पथ पर बढ़ना भी होता है, क्योंकि जब जीव का किसी भी प्रकार का पंडितमरण होता है, तो उसके संसार के भव सीमित रह जाते हैं, इसलिए प्रशस्तमरण बनाम पंडितमरण संसार को सीमित करने व समाप्त करने की प्रक्रिया का नाम है। इसीलिए पंडित की व्याख्या करते हुए परमात्मप्रकाश में कहा गया है.
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देहविभिण्णउ णाणमउ जो परमप्पु णिएइ । परमसमाहि परियिउ पंडिउ सो जि हवे ।।
- परमात्मप्रकाश, २/१४
जो पुरुष शरीर से भिन्न मानता हुआ परमात्मा को केवलज्ञान कर पूरी तरह जानता, वही परम समाधि में तिष्ठता हुआ पंडित अर्थात् अंतरात्मा है।
यद्यपि भगवती आराधना में मरण के सत्रह भेदों का उल्लेख आचार्य शिवार्य ने किया है, तथापि उन्होंने पांच भेदों यथा- पंडितपंडित मरण, पंडित